अमित पांडेय
भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे तनाव के बीच पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ द्वारा सुलह का प्रस्ताव सामने आना एक नई कूटनीतिक हलचल पैदा कर गया है। आसिफ ने अपने बयान में कहा कि इस्लामाबाद तनाव को “लपेटने” के लिए तैयार है—बशर्ते भारत पहला कदम उठाए और हालिया हालातों को और न बढ़ाए। हालांकि भारत की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन रणनीतिक और कूटनीतिक हलकों में इस पर गंभीर चर्चा शुरू हो गई है।
यह प्रस्ताव उस स्थिति में आया है जब भारत ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में ऑपरेशन सिंदूर के तहत नौ आतंकी ठिकानों पर हमले किए। इस हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई थी और 20 से अधिक घायल हुए थे। यह हमला भारत की ओर से “सटीक, मापी गई और संयमित सैन्य कार्रवाई” के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने स्पष्ट किया कि यह कार्रवाई न केवल एक जवाबी हमला थी, बल्कि भविष्य की आतंकवादी गतिविधियों को रोकने की एक रणनीतिक योजना भी थी। उन्होंने कहा, “भारत ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए इस आतंकवादी हमले का जवाब दिया है, ताकि ऐसी घटनाएं फिर न हों। यह कार्रवाई बिल्कुल जिम्मेदार, सीमित और निशाना साधने वाली थी।”
भारत ने इस अभियान को ‘सिंदूर’ नाम देकर भावनात्मक जुड़ाव भी सुनिश्चित किया है। सिंदूर, जो विवाह और नारी सम्मान का प्रतीक है, एक संदेश देता है कि यह लड़ाई केवल सरहद की सुरक्षा की नहीं, बल्कि भारत की अस्मिता की भी है। इस रणनीति को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए सरकार ने पहली बार दो महिला सैन्य अधिकारियों—कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह—को प्रेस वार्ता में शामिल किया। यह कदम महिलाओं को जोड़ने, और जनता में व्यापक समर्थन पाने का प्रतीक माना जा रहा है।
वहीं पाकिस्तान की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत संयमित रही। रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने ब्लूमबर्ग टेलीविज़न को दिए गए इंटरव्यू में कहा, “हमने हमेशा कहा है कि हम कोई युद्ध शुरू नहीं करेंगे, लेकिन अगर हमला हुआ तो जवाब अवश्य देंगे। अगर भारत एक कदम पीछे लेता है, तो हम पूरी तरह तैयार हैं तनाव को खत्म करने के लिए।”
यह वक्तव्य पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति की ओर भी इशारा करता है। आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य प्रतिष्ठान की गिरती साख ने उसे एक तरह से कूटनीतिक नरमी अपनाने के लिए मजबूर किया है। हालांकि पाकिस्तान का यह दावा कि वह शांति चाहता है, अपने इतिहास और दोहरे मापदंडों के चलते संदेह के घेरे में रहता है।
भारत के लिए यह समय रणनीतिक रूप से अत्यंत नाजुक है। एक ओर सरकार को आतंकवाद पर कड़ा रुख दिखाना है, तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह विश्वास भी दिलाना है कि भारत क्षेत्रीय शांति के लिए प्रतिबद्ध है। विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की कार्रवाई “नॉन-एस्केलेटरी” (अप्रवर्धक) रही है और यह कदम अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है।
भारत-पाकिस्तान संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखें तो ऐसे प्रस्ताव पहले भी आए हैं, लेकिन उनके पीछे की नीयत पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। कारगिल युद्ध, पठानकोट हमला, उरी और पुलवामा जैसी घटनाओं के बाद पाकिस्तान की सरकारों ने सार्वजनिक रूप से सुलह के संकेत दिए, पर ज़मीनी हकीकत अलग रही।
विश्लेषकों का यह भी मानना है कि पाकिस्तान द्वारा तनाव को “लपेटने” की पेशकश का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय दबाव को कम करना और खुद को ‘शांति पसंद’ देश के रूप में पेश करना हो सकता है। पाकिस्तान इस समय फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट से निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है और भारत पर आक्रामक रुख उसे वैश्विक मंचों पर अलग-थलग कर सकता है।
उधर भारत भी जानता है कि लंबे समय तक सीमाओं पर तनाव बनाए रखना आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं है। व्यापार, निवेश और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में भारत के लिए सबसे उपयुक्त रणनीति यही है कि वह पाकिस्तान की मंशा को परखे, और किसी भी बातचीत या सुलह से पहले आतंकवाद के ठोस प्रमाणों पर काम करने की मांग करे।
इसके अलावा, यह भी अहम है कि भारत अपने नागरिकों को स्पष्ट रूप से बताए कि ‘शांति’ के नाम पर कोई समझौता आतंकवाद के खिलाफ सख्ती पर नहीं होगा। जनता का मूड भी इस समय काफी संवेदनशील है और सरकार के हर कदम की कड़ी निगरानी हो रही है।
पाकिस्तान का यह सुलह प्रस्ताव एक नई शुरुआत का संकेत हो सकता है—अगर वह सच्चे अर्थों में हो। लेकिन भारत को यह ध्यान रखना होगा कि बीते अनुभवों में पाकिस्तान ने अक्सर ऐसी पेशकशों को एक कूटनीतिक चाल की तरह इस्तेमाल किया है।
आने वाले हफ्ते इस क्षेत्र की शांति, सुरक्षा और कूटनीतिक संतुलन के लिए निर्णायक सिद्ध हो सकते हैं। क्या भारत सुलह के इस प्रस्ताव को स्वीकार करेगा, या फिर पहले ठोस कार्रवाई और नीयत के प्रमाण मांगेगा—यह निर्णय भारत की विदेश नीति की परिपक्वता की असली परीक्षा होगी।