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जनआक्रोश के सामने झुकी व्यवस्था: उत्तराखंड में शराब की दुकानों पर लगी रोक और उसके दूरगामी असर

उत्तराखंड सरकार द्वारा नवसृजित शराब की दुकानों को बंद करने का निर्णय केवल एक प्रशासनिक आदेश नहीं है, बल्कि यह प्रदेश की सामाजिक चेतना, जनसंवेदना और राजनीतिक दबाव की मिली-जुली परिणति है।

News Desk by News Desk
May 16, 2025
in संपादकीय
जनआक्रोश के सामने झुकी व्यवस्था: उत्तराखंड में शराब की दुकानों पर लगी रोक और उसके दूरगामी असर
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अमित पांडेय

उत्तराखंड सरकार द्वारा नवसृजित शराब की दुकानों को बंद करने का निर्णय केवल एक प्रशासनिक आदेश नहीं है, बल्कि यह प्रदेश की सामाजिक चेतना, जनसंवेदना और राजनीतिक दबाव की मिली-जुली परिणति है। बीते कुछ वर्षों में राज्य में शराब नीति को लेकर जिस प्रकार जनता, खासकर ग्रामीण व पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाओं ने विरोध दर्ज कराया, वह अभूतपूर्व था। अब जब आबकारी विभाग ने इस जनदबाव के आगे झुकते हुए नववर्ष 2025 की नीति के तहत इन दुकानों को बंद करने का आदेश दिया है, तब इस फैसले के निहितार्थों का गहराई से विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है।

2022 से 2024 के बीच राज्य सरकार ने अपनी आबकारी नीति में राजस्व बढ़ाने के उद्देश्य से कई नए शराब ठेकों की मंजूरी दी। आबकारी विभाग के आंकड़ों के अनुसार, केवल 2023-24 में प्रदेश में 150 से अधिक नई शराब दुकानें खोली गईं, जिनमें से 60% ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में थीं। इस फैसले का व्यापक विरोध हुआ। महिलाओं ने जगह-जगह शराब दुकानों के सामने धरना-प्रदर्शन किया। टिहरी, पौड़ी, चंपावत, बागेश्वर जैसे जिलों में यह आंदोलन तीव्र रूप से उभरा।

इन विरोध प्रदर्शनों में यह बात प्रमुखता से सामने आई कि शराब की दुकानों के खुलने से सामाजिक विघटन बढ़ रहा है—घरेलू हिंसा, युवाओं में नशे की प्रवृत्ति, और स्थानीय शांति व्यवस्था पर सीधा असर हो रहा है। विरोध का सबसे बड़ा पहलू यह था कि बिना ग्रामसभा की सहमति के शराब की दुकानें खोली गईं, जो कि पंचायत कानूनों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन है।

2024 के अंत तक यह मुद्दा राजनीतिक रंग ले चुका था। विपक्ष ने इसे “सरकारी संवेदनहीनता” का प्रतीक बताते हुए विधानसभा और सड़कों पर विरोध किया। महिला संगठनों ने इसे “सांस्कृतिक आक्रमण” बताया। यह भी उल्लेखनीय है कि 2024 के पंचायत चुनावों में कई प्रत्याशियों ने शराब दुकानों के विरोध को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया और कई स्थानों पर जीत भी दर्ज की।

सरकार ने पहले तो राजस्व के तर्क दिए। उत्तराखंड का वार्षिक बजट ₹86,000 करोड़ के आसपास है, जिसमें आबकारी से लगभग ₹3,200 करोड़ की आय होती है — यानी कुल राजस्व का लगभग 3.7%। नवसृजित दुकानों से 2024-25 में ₹400-₹500 करोड़ की अतिरिक्त आय का अनुमान था। सरकार ने प्रारंभ में इसे अर्थव्यवस्था की मजबूरी बताया।

लेकिन जनविरोध की तीव्रता, और आने वाले 2027 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए, अंततः 14 मई 2025 को आबकारी आयुक्त हरि चंद्र सेमवाल द्वारा जिलाधिकारियों को निर्देश जारी किए गए कि नवसृजित सभी शराब दुकानों को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए।

इस निर्णय को केवल एक तात्कालिक जनतुष्टि मानना उचित नहीं होगा। यह उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में सामाजिक चेतना के पुनर्जागरण की मिसाल है, जहां सरकारें राजस्व के बजाय समाज के दीर्घकालिक हितों को प्राथमिकता देने को मजबूर हुई हैं।
यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि राज्य में एक नया जनचेतनात्मक परिदृश्य उभर रहा है, जहां महिलाएं न केवल परिवार की सुरक्षा के लिए लड़ रही हैं, बल्कि नीति निर्माण की प्रक्रिया को भी प्रभावित कर रही हैं।

अलबत्ता यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार इस राजस्व घाटे की भरपाई कैसे करती है। क्या पर्यटन, कुटीर उद्योग, या जैविक कृषि जैसे वैकल्पिक मार्गों को बढ़ावा मिलेगा, या यह निर्णय सिर्फ एक अस्थायी राजनीतिक संतुलन भर रह जाएगा?
राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के इस त्रिकोणीय संतुलन में उत्तराखंड का यह कदम देश के अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण बन सकता है कि जनता की आवाज केवल सुनी ही नहीं जानी चाहिए, बल्कि नीति निर्माण की दिशा भी तय कर सकती है।

(लेखक, समाचीन विषयों के गहन अध्येता, युवा चिंतक व राष्ट्रीय-आंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं, रणनीति, रक्षा और तकनीकी नीतियों पर विशेष पकड़ रखते हैं।)

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