अमित पांडेय
कभी भारत की सामाजिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति का इंजन कहलाया जाने वाला मध्यम वर्ग आज एक खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। स्वतंत्रता-पूर्व काल में यह वर्ग केवल मूक दर्शक नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की वैचारिक आत्मा था। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और स्वदेशी जैसे जनांदोलनों को गति देने के लिए वकीलों, अध्यापकों, क्लर्कों और छात्रों पर भरोसा किया—जिनका संबंध इसी वर्ग से था। शिक्षा, सुधार और देशभक्ति में विश्वास रखने वाला यह वर्ग उस भारत का विवेक था, जो तब आकार ले रहा था।
1947 के बाद यही वर्ग गणराज्य की बुनियाद बना। इसने प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश किया, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में नेतृत्व किया, औद्योगिक पहल की, और 1990 के दशक में उदारीकरण को पूरे उत्साह से अपनाया। शिक्षा सामाजिक गतिशीलता की कुंजी बनी, और सरकारी व निजी नौकरियों ने सम्मान, स्थिरता और भविष्य की उम्मीद दी। लेकिन पिछले दशक में—विशेष रूप से भाजपा-नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौर में—यह कहानी बिखरने लगी है।
क्या होता है जब एक देश की बुनियाद दरकने लगे?
आज का मध्यम वर्ग एक ऐसे शिकंजे में फंसा है जहाँ नौकरियों के अवसर घटते जा रहे हैं, शिक्षा की लागत आसमान छू रही है, शहरी भीड़भाड़ बढ़ रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। विडंबना यह है कि आयकर का 85% से अधिक योगदान देने वाला यह वर्ग न तो गरीबों की कल्याण योजनाओं में शामिल है, न ही नीतिगत फैसलों में गिना जाता है। वे न तो इतने गरीब हैं कि सब्सिडी मिल सके, न इतने अमीर कि बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था में बिना सहारे टिक सकें।
क्या भारत अब भी अवसरों की भूमि है, जब एक स्नातक मोमोज़ बेचने या डिलीवरी बॉय की नौकरी करने को मजबूर हो? क्या कोई समाज प्रगति कर सकता है यदि उच्च शिक्षा एक लॉन्चपैड नहीं, बल्कि कर्ज का जाल बन जाए? और अगर लाखों छात्र सिर्फ जीविका के लिए डिग्रियाँ ले रहे हैं, न कि ज्ञान या नवाचार के लिए—तो इसका देश पर क्या असर होगा?
विदेश में रोजगार पाने की परंपरागत राह भी अब बंद हो रही है। वीज़ा नियम सख्त हो गए हैं, और “नए भारत” का सपना अब उन युवाओं के लिए एक दुःस्वप्न बन गया है जो इस बदलाव के बीच फंस गए हैं।
शिक्षा और रोजगार का संकट
भारतीय मध्यम वर्ग ने शिक्षा को सदैव सामाजिक समानता का साधन माना है। कला, वाणिज्य, विज्ञान—और बाद में इंजीनियरिंग व प्रबंधन की डिग्रियाँ—सुरक्षित भविष्य की राह मानी जाती थीं। लेकिन 2025 में यह विश्वास डगमगाने लगा है।
AISHE 2023 के अनुसार, उच्च शिक्षा में नामांकन बढ़ा है, लेकिन नौकरियाँ उसी अनुपात में नहीं बढ़ीं। Aspiring Minds की रिपोर्ट बताती है कि भारत के 80% से अधिक इंजीनियरिंग स्नातक रोजगार योग्य नहीं हैं—क्योंकि पाठ्यक्रम पुराने हैं, व्यावहारिक कौशल की कमी है, और संवाद क्षमता कमजोर है।
वहीं निजी विश्वविद्यालय लाखों की फीस लेकर भी नौकरी की कोई गारंटी नहीं देते। मध्यम वर्ग के छात्र लोन लेकर पढ़ाई करते हैं, लेकिन नौकरी नहीं मिलने पर वे कर्ज के जाल में फंस जाते हैं। एक इंजीनियरिंग डिग्री का खर्च ₹8–12 लाख तक है, जबकि शुरुआती वेतन ₹2.5–4 लाख वार्षिक तक सीमित है।
विदेश में पढ़ाई कर बेहतर करियर बनाने का सपना भी अब खतरे में है। 2024 में अमेरिकी छात्र वीज़ा रिजेक्शन दर 36% तक पहुंच गई। यूके में “ग्रेजुएट रूट” अब 24 महीनों से घटाकर 18 महीनों तक सीमित करने का प्रस्ताव है। कनाडा ने भी पोस्ट-स्टडी वर्क परमिट में कटौती शुरू कर दी है।
CMIE के अनुसार, 2025 में शहरी बेरोजगारी दर 8.8% तक पहुंच गई है—जिसका सबसे बड़ा असर ग्रेजुएट युवाओं पर पड़ा है। MBA पास युवा डिलीवरी एजेंट बन रहे हैं, इंजीनियर उबर चला रहे हैं, और PhD धारक नौकरी के लिए भटक रहे हैं। गिग इकॉनॉमी इस कुंठित श्रमिक वर्ग को तो समेट रही है, लेकिन इसमें न सुरक्षा है, न भविष्य।
ढहते गाँव, दमघोंटू शहर
यह संकट केवल शहरी नहीं है—इसकी शुरुआत गाँव से होती है।
कृषि और लघु उद्योगों पर निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था अब बुरी तरह चरमरा रही है। NSSO 2024 के अनुसार, 60% से अधिक गाँवों में पीने के पानी की पाइपलाइन नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के बुनियादी ढांचे की हालत दयनीय है। MNREGA में मजदूरी भुगतान में देरी, भ्रष्टाचार और सीमित पहुंच ने इसे भी कमज़ोर बना दिया है।
इसका परिणाम है बड़े पैमाने पर पलायन। ग्रामीण युवा अब अवसरों की तलाश में नहीं, बल्कि गरीबी से भागने के लिए शहरों की ओर आ रहे हैं। लेकिन शहर खुद ही चरमराए हुए हैं।
UN Habitat के अनुसार, 35% से अधिक शहरी जनसंख्या झुग्गियों या अस्थायी आवासों में रहती है। नौकरियाँ मुख्यतः अनौपचारिक हैं—फुटपाथ पर व्यापार, गिग वर्क, या असुरक्षित फैक्ट्री मजदूरी। “रेहड़ी-पटरी”, टिफिन सेवाएं और घरेलू सिलाई अब उद्यमिता नहीं, जीविका का साधन हैं।
कभी इन स्थितियों से ऊपर समझा जाने वाला मध्यम वर्ग अब इन्हीं हालात का हिस्सा बन गया है। किराया, परिवहन, और खाद्य वस्तुओं की महंगाई इतनी बढ़ गई है कि अब विकास नहीं, सिर्फ गुज़ारा करना ही लक्ष्य बन गया है।
नीतिगत उपेक्षा और आर्थिक हाशियाकरण
भारत सरकार द्वारा गरीबों को मुफ्त राशन, रसोई गैस सब्सिडी और नकद सहायता दी जाती है। लेकिन मध्यम वर्ग, जो अक्सर इन योग्यताओं से थोड़ा ऊपर होता है, इन योजनाओं से वंचित रहता है—जबकि टैक्स वही भरता है।
वित्त मंत्रालय के अनुसार, ₹5–15 लाख सालाना कमाने वाले मध्यमवर्गीय नागरिक 85% से अधिक आयकर देते हैं, लेकिन उन्हें कोई सीधी सुविधा नहीं मिलती। अब कई लोग वही राशन लाइनें लगा रहे हैं, जो पहले केवल गरीबों के लिए थीं—यह नीचे की ओर गिरावट का स्पष्ट संकेत है।
2020 से 2025 तक जीवन यापन की लागत में तीव्र वृद्धि हुई:
• महानगरों में ईंधन की कीमतों में 60% से अधिक वृद्धि हुई है।
• रसोई गैस सिलेंडर की कीमत ₹1,200 पार कर चुकी है।
• निजी स्कूलों की फीस हर साल 12–15% बढ़ी है।
• सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता के चलते चिकित्सा खर्च दोगुना हो गया है।
वहीं वेतन में वृद्धि नगण्य रही है—2024 में निजी क्षेत्र में वास्तविक वेतन वृद्धि केवल 3.2% रही, कई क्षेत्रों में तो छंटनी हुई है।
स्टार्टअप इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं के बावजूद नवाचार और औद्योगिक आधार का अभाव बना हुआ है। अधिकांश स्टार्टअप केवल ऐप, फाइनेंस या मार्केटिंग तक सीमित हैं—कोर रिसर्च या मैन्युफैक्चरिंग में प्रगति नहीं हुई।
एक संकटग्रस्त वर्ग
भारतीय मध्यम वर्ग अब केवल आर्थिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से भी कुचला हुआ महसूस करता है।
स्वतंत्रता सेनानियों से लेकर शिक्षकों, वैज्ञानिकों, और नौकरशाहों तक—इस वर्ग ने राष्ट्र निर्माण की नींव रखी थी। उदारीकरण के बाद, यही वर्ग वैश्विक तकनीकी और उद्यमिता के मोर्चे पर सबसे आगे रहा। लेकिन अब यह वर्ग तीनहरी गिरफ्त में है:
तेज़ी से बढ़ती महंगाई, गिरती नौकरी की गुणवत्ता और नीतिगत अदृश्यता।
वोट तो सब लेते हैं, पर कोई उनकी आवाज़ नहीं उठाता।
सरकारी योजनाएँ गरीबों के लिए हैं, सब्सिडी उद्योगपतियों के लिए, और नीति निर्धारण का फोकस कहीं और है। नतीजतन, यह वर्ग चुपचाप बिखर रहा है।
इसका मनोवैज्ञानिक असर गहरा है:
आत्मसम्मान टूटा है, युवा निराश हैं, और परिवार कर्ज में डूब रहे हैं।
शिक्षा अब अवसर नहीं, जोखिम है। नौकरी अब सम्मान नहीं, संघर्ष है।
“अगर मध्यम वर्ग प्रगति पर विश्वास खो दे,” नेहरू ने कहा था, “तो राष्ट्र की दिशा भटक जाती है।”
आज यह चेतावनी पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है।
यदि भारत के नीति निर्माता और नेता तुरंत समावेशी नीतियों, शिक्षा सुधार, रोजगार सृजन और शहरी नियोजन में हस्तक्षेप नहीं करते, तो वे केवल एक वर्ग नहीं, बल्कि देश के सबसे अहम पुल को खो देंगे—जो गरीब और अमीर, परंपरा और प्रगति, निराशा और आशा के बीच संतुलन बनाता है।
यदि मध्यम वर्ग ढह गया, तो भारत के लोकतांत्रिक और विकासशील सपने का दिल ही खत्म हो जाएगा।