अमित पांडेय
17 जून 2025 की सुबह वाराणसी के लंका मोड़ क्षेत्र में दो ऐतिहासिक खाद्य प्रतिष्ठानों—1949 में स्थापित पहलवान लस्सी और 1917 से चल रही चाची की कचौरी—को बुलडोजर चलाकर जमींदोज कर दिया गया। यह कार्रवाई 241.80 करोड़ रुपये की सड़क चौड़ीकरण परियोजना के तहत हुई, जिसके अंतर्गत लहरतारा से विजया मॉल तक 9.5 किलोमीटर का मार्ग चार लेन में बदला जाना है। प्रशासन का दावा है कि इस परियोजना से पर्यटन और यातायात दोनों को लाभ मिलेगा, लेकिन स्थानीय निवासियों, दुकानदारों और सांस्कृतिक इतिहासकारों के लिए यह विकास नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सफाया था। ये दुकानें केवल खाद्य केंद्र नहीं थीं—ये शहर की सांस्कृतिक स्मृति और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा थीं, जो दशकों से छात्रों, तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की सेवा कर रही थीं। सरकार ने मुआवजे का आश्वासन तो दिया है, लेकिन पुनर्वास की कोई स्पष्ट योजना नहीं है। सवाल उठता है—क्या पर्यटन वाकई बढ़ेगा जब उस आकर्षण को ही मिटा दिया जाए जो पर्यटकों को खींचता है?
इसी दिन एक और खबर सामने आई जिसने “विकास” की नींव पर ही सवाल खड़े कर दिए। 12,000 करोड़ रुपये की लागत से बन रहे दिल्ली–देहरादून एक्सप्रेसवे पर सहारनपुर में एक बड़ा हादसा हुआ जब एक खंभे पर लगाई जा रही गर्डर क्रेन के तार टूटने से गिर गई। दो मज़दूर घायल हो गए और आठ की जान बाल-बाल बची। इससे पहले, मंगलुरु के कंकनाडी क्षेत्र में मात्र पहली बारिश में ही हाल ही में उद्घाटित 59,910 करोड़ की तटीय सड़क परियोजना के तहत बनी दीवार गिर गई, जिससे पानी का बहाव इतना तेज़ हुआ कि पास की बिजली की खंभा भी गिर पड़ा। सीसीटीवी में कैद यह दृश्य पूरे देश में वायरल हुआ—लोग पूछने लगे कि हजारों करोड़ की लागत से बनी संरचनाएं इतनी कमजोर कैसे हो सकती हैं?
ये घटनाएं अपवाद नहीं हैं, बल्कि व्यवस्था में व्याप्त गहरे भ्रष्टाचार और लापरवाही का संकेत हैं। 2023 की नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 400 से अधिक केंद्रीय परियोजनाएं बजट से अधिक खर्च कर चुकी थीं, जिनका कुल ओवररन 4.82 लाख करोड़ रुपये था। योजना की कमी, घटिया सामग्री, और निगरानी की अनुपस्थिति इसके प्रमुख कारण बताए गए। 2015 से 2020 के बीच, इंडिया स्पेंड के विश्लेषण में 6,000 से अधिक निर्माण-सम्बंधित मौतें दर्ज की गईं, जिनमें से अधिकांश सार्वजनिक परियोजनाओं से जुड़ी थीं। उत्तर प्रदेश में 53 करोड़ की एक सड़क परियोजना का पैसा जारी हुआ, लेकिन सड़क कभी बनी ही नहीं। उत्तराखंड के टनकपुर–चंपावत–पिथौरागढ़ मार्ग पर सैकड़ों करोड़ खर्च होने के बावजूद हर बारिश में सड़क फिसलती है। हरिद्वार के ज़िलाधिकारी को भूमि घोटाले में शामिल पाए जाने पर निलंबित किया गया, जो एक राजमार्ग परियोजना से जुड़ा था।
एक और सवाल उठता है—वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है? भारत का 2024–25 का पूंजीगत बुनियादी ढांचा बजट 11.11 लाख करोड़ रुपये है, जो 2022–23 के 7.5 लाख करोड़ की तुलना में 48% अधिक है। सरकार इसे GDP वृद्धि और रोजगार से जोड़ती है। लेकिन सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि 60% से अधिक परियोजनाएं समय से पीछे हैं, पर्यावरण मूल्यांकन जल्दबाज़ी में मंजूर होते हैं, और स्थानीय समुदायों को शामिल नहीं किया जाता। वहीं शिक्षा, स्वास्थ्य और बाढ़-निरोधक संरचनाएं आज भी उपेक्षित हैं। 2023 के मानव विकास सूचकांक (HDI) में भारत की रैंकिंग 132 रही और NFHS-5 डेटा के अनुसार ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं, महिलाओं में एनीमिया, और बच्चों में कुपोषण की स्थिति आज भी चिंताजनक है।
जब मंत्री पुलों का उद्घाटन करते हैं जो कुछ ही महीनों में गिर जाते हैं, तब यह केवल इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि प्रणालीगत विफलता है। क्या करोड़ों का खर्च करने के बाद भी गुणवत्ता जांच और सुरक्षा ऑडिट अनिवार्य नहीं होने चाहिए? क्यों बार-बार दोषी पाए गए ठेकेदारों को फिर से अनुबंध दिए जाते हैं? और जनता को इन परियोजनाओं की स्थिति की जानकारी क्यों नहीं दी जाती?
भारत को अवश्य ही बेहतर सड़कें, तेज़ रेल और जलवायु-लचीले शहरों की ज़रूरत है। लेकिन जो चाहिए, वह है जवाबदेही—ना कि बुलडोज़र आधारित विकास जो केवल उद्घाटन और फोटो ऑप्स तक सीमित है। जब तक भारत केवल कंक्रीट नहीं, बल्कि नैतिकता, सहानुभूति और इंजीनियरिंग की शुद्धता से नहीं बनाएगा, तब तक इसके विकास के सपने फटने के कगार पर ही रहेंगे।
वे प्रश्न जो अब पूछे जाने चाहिए:
• करोड़ों की लागत वाली परियोजनाएं उद्घाटन के हफ्तों में ही क्यों गिर जाती हैं?
• कौन इन परियोजनाओं की गुणवत्ता का ऑडिट करता है और क्या ये रिपोर्ट सार्वजनिक होती हैं?
• विस्थापित समुदायों को पारदर्शिता के साथ मुआवज़ा और पुनर्वास क्यों नहीं मिल रहा?
• क्यों “विरासत” केवल मंदिरों और किलों तक सीमित है, लेकिन जीवित संस्थानों जैसे स्ट्रीट फूड स्टॉल्स के लिए नहीं?
• क्या एक देश वाकई में “विकसित” हो सकता है जब उसका विकास उसके लोगों तक ही नहीं पहुंचता?
इन सवालों के उत्तर ही तय करेंगे कि भारत वाकई में एक मजबूत भविष्य बना रहा है—या फिर केवल तबाही की नींव रख रहा है।