लेखक: अमित पांडेय
कांग्रेस पार्टी ने केंद्र की मोदी सरकार पर आदिवासियों के अधिकारों और देश की पारिस्थितिक सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने का गंभीर आरोप लगाया है। पार्टी का कहना है कि केंद्र सरकार का रवैया वनाधिकार कानून, 2006 (Forest Rights Act – FRA) को कमजोर करने वाला है और इससे न केवल आदिवासी समुदायों की आजीविका प्रभावित होगी, बल्कि भारत के जंगल और पर्यावरण भी संकट में पड़ सकते हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए मोदी सरकार की नीयत और नीतियों पर सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि सरकार ने अब तक प्रभावित समुदायों से कोई सार्थक संवाद नहीं किया है, और न ही उनकी समस्याओं को सुलझाने की कोई गंभीर कोशिश की है। उनका कहना है कि जिन लोगों की जिंदगी जंगलों पर निर्भर है, उनकी अनदेखी कर सरकार ने एक खतरनाक रास्ता अपनाया है। रमेश ने यह भी कहा कि सरकार की वन नीति भारत की पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन रही है।
यह विवाद तब और बढ़ा जब 100 से अधिक नागरिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि पर्यावरण मंत्रालय वनाधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। इस पत्र में कहा गया कि मंत्रालय ने संसद और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को अवैध कब्जों से संबंधित आंकड़े इस तरह से पेश किए जो कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं हैं। यह आरोप भी लगाया गया कि पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि FRA के तहत दिए गए भूमि अधिकार जंगलों की गिरती हालत के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
इस टिप्पणी को लेकर नागरिक संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि ऐसी बातों का कोई कानूनी या वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनके अनुसार यह बयान बेहद गैरजिम्मेदाराना और भ्रामक है। उन्होंने मंत्री पर यह आरोप भी लगाया कि जब वे FRA और आदिवासियों को दोषी ठहराते हैं, तो यह conveniently भूल जाते हैं कि खुद पर्यावरण मंत्रालय ने 2008 से अब तक तीन लाख हेक्टेयर से अधिक जंगलों को गैर-वन कार्यों के लिए अवैध रूप से हस्तांतरित किया है—वह भी बिना FRA का अनुपालन किए।
मंत्री के बयान के बाद जनजातीय मामलों के मंत्रालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। मंत्रालय ने वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023 में FRA को वन क्षरण का कारण बताने पर स्पष्टीकरण मांगा है। यह रिपोर्ट दिसंबर 2024 में प्रकाशित हुई थी और इसका उद्देश्य देश के वनों की स्थिति का मूल्यांकन करना है।
वनाधिकार अधिनियम, 2006 को इसलिए लाया गया था ताकि लंबे समय से जंगलों में रह रहे आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को उनका कानूनी अधिकार मिल सके। इस कानून के तहत उन्हें न सिर्फ जंगलों में रहने और उपज एकत्र करने का अधिकार दिया गया, बल्कि वनों की रक्षा की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। अक्टूबर 2023 तक करीब 23.43 लाख जमीन के पट्टे दिए जा चुके हैं जो लगभग 1.80 करोड़ एकड़ भूमि पर फैले हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर इसके क्रियान्वयन में भारी खामियां हैं। कई राज्यों में प्रक्रिया धीमी है और प्रशासनिक अड़चनें बनी हुई हैं।
2014 के बाद से दावों और स्वीकृति के बीच की खाई और भी बढ़ गई है, जिससे आदिवासी समुदायों में निराशा गहराती जा रही है। हाल में प्रकाशित ‘नेचर कंजर्वेशन इंडेक्स 2024’ के अनुसार भारत दुनिया के उन पांच देशों में शामिल है जहाँ जैव विविधता की सबसे ज्यादा हानि हो रही है। यह दर्शाता है कि देश में पारिस्थितिक संकट गहराता जा रहा है, और सरकार की मौजूदा नीतियाँ इसे और गंभीर बना रही हैं।
कुल मिलाकर, कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार केवल विकास की आड़ में पर्यावरण और आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी कर रही है। सरकार की मौजूदा नीतियाँ न तो संवेदनशील हैं और न ही लोकतांत्रिक, और यदि समय रहते इन्हें रोका नहीं गया तो इसका असर केवल जंगलों या आदिवासियों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे देश की पारिस्थितिकी पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।