लेखक: अमित पांडेय
उत्तराखंड सरकार ने राज्य के 550 सरकारी स्कूलों को कॉरपोरेट समूहों के माध्यम से गोद दिलवाने की योजना बनाई है। यह पहल पर्वतीय और दुर्गम क्षेत्रों के स्कूलों को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने के उद्देश्य से की जा रही है, जिसमें सीएसआर फंड के जरिए मॉडल क्लासरूम, कंप्यूटर लैब, साइंस लैब, पुस्तकालय, फर्नीचर, शौचालय, खेल सामग्री, मैदान और चहारदीवारी जैसी सुविधाएं दी जाएंगी। पहली नजर में यह एक सराहनीय कदम लगता है, लेकिन जब इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
सबसे पहला सवाल यह है कि आखिर इतने वर्षों से सत्ता में रहते हुए सरकार ने इन स्कूलों की हालत सुधारने के लिए क्या किया? उत्तराखंड में 15,873 सरकारी स्कूल हैं, जिनमें से 2,210 स्कूलों की स्थिति बेहद खराब है। इनमें से 900 से अधिक स्कूल ऐसे हैं जहां भवन जर्जर हैं, बरसात में पानी टपकता है, दीवारें दरकी हुई हैं और छतें गिरने की आशंका बनी रहती है। 130 स्कूलों में पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है, और 908 स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। क्या यह सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं थी कि इन स्कूलों को पहले ही सुरक्षित और सुविधाजनक बनाया जाता?
दूसरा सवाल यह है कि जब सरकार खुद इन स्कूलों को बुनियादी सुविधाएं नहीं दे पा रही है, तो वह रैलियों, प्रचार अभियानों और भव्य आयोजनों पर करोड़ों रुपये कैसे खर्च कर रही है? शिक्षा विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में प्रति छात्र खर्च में 40% की वृद्धि हुई है, लेकिन इसके बावजूद स्कूलों में छात्र संख्या में 60,000 की गिरावट आई है। यानी पैसा तो खर्च हुआ, लेकिन न तो गुणवत्ता बढ़ी, न ही बच्चों का भरोसा लौटा।
तीसरा और सबसे चिंताजनक सवाल यह है कि क्या यह पहल शिक्षा के निजीकरण की ओर एक कदम नहीं है? जब कॉरपोरेट समूह स्कूलों को गोद लेंगे, तो क्या वे अपनी शर्तों पर पाठ्यक्रम, मूल्यांकन और संचालन नहीं तय करेंगे? क्या यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के नाम पर शिक्षा को बाज़ार के हवाले करने की तैयारी है? सरकार कहती है कि यह साझेदारी छात्रों को बेहतर भविष्य देगी, लेकिन क्या यह भविष्य कॉरपोरेट हितों से संचालित होगा या छात्रों की जरूरतों से?
इस संदर्भ में यह भी देखा जाना चाहिए कि राज्य सरकार ने निजी स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए स्कूल मानक प्राधिकरण का खाका तो तैयार किया है, लेकिन अभी तक इसे लागू नहीं किया गया। यानी एक तरफ सरकारी स्कूलों को कॉरपोरेट के हवाले किया जा रहा है, और दूसरी तरफ निजी स्कूलों पर नियंत्रण की प्रक्रिया अधर में है। यह दोहरा रवैया शिक्षा को एक सार्वजनिक अधिकार से बदलकर एक निजी सेवा में तब्दील करने की दिशा में संकेत करता है।
उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था पहले से ही संकट में है। पहाड़ी जिलों में छात्र संख्या लगातार घट रही है, और अभिभावक मजबूरी में बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। ऐसे में सरकार की यह पहल एक तरह से अपनी विफलता को छिपाने का प्रयास है। अगर सरकार वास्तव में शिक्षा के प्रति गंभीर होती, तो वह पहले से मौजूद स्कूलों को मजबूत करती, शिक्षकों की नियुक्ति करती, और डिजिटल शिक्षा को गांव-गांव तक पहुंचाती।
कॉरपोरेट समूहों की भागीदारी तब तक स्वागत योग्य है जब वह सरकार की जवाबदेही को मजबूत करे, न कि उसकी जिम्मेदारी को बदल दे। लेकिन मौजूदा परिदृश्य में यह पहल एक राजनीतिक तमाशा बनती जा रही है, जहां शिक्षा की मूल समस्याएं दरकिनार कर दी गई हैं और दिखावे की योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है।
शिक्षा का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त है, न कि कॉरपोरेट दया से मिला हुआ उपहार। अगर सरकार इस अधिकार को सुरक्षित नहीं रख सकती, तो उसे सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार भी नहीं है।