भारत ने 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता का सपना अभी भी अधूरा है। 2016 में जब वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू हुआ, तो इसे “दूसरी आज़ादी” कहा गया था। इसका उद्देश्य था पूरे देश को एक कर ढांचे में जोड़ना, कराधान को सरल बनाना और पारदर्शिता लाना। लगभग एक दशक बाद, सरकार ने 22 सितंबर 2025 से जीएसटी 2.0 लागू करने की घोषणा की है और इसे “तीसरी आज़ादी” करार दिया है। परंतु आम नागरिकों के लिए यह राहत से अधिक एक नई नौकरशाही की परछाई जैसा प्रतीत हो रहा है।
नए ढांचे में जीएसटी परिषद ने चार दरों की जगह तीन दरें तय की हैं। अब 5 प्रतिशत की दर आवश्यक वस्तुओं पर, 18 प्रतिशत की दर सामान्य वस्तुओं व सेवाओं पर और 40 प्रतिशत की दर विलासिता तथा हानिकारक वस्तुओं पर लागू होगी। सरकार का दावा है कि यह सुधार आम आदमी के जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाएगा, पारदर्शिता लाएगा और व्यापार करने में सरलता देगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में इसे “दीवाली का तोहफ़ा” बताया।
कुछ क्षेत्रों में निश्चित ही राहत दिखाई देती है। साबुन, शैम्पू, टूथपेस्ट, साइकिल और रसोई के सामान अब केवल 5 प्रतिशत जीएसटी के दायरे में हैं। पनीर, रोटी और यूएचटी दूध जैसे खाद्य पदार्थ पूरी तरह से करमुक्त कर दिए गए हैं। जीवन रक्षक दवाइयों की 33 किस्में और 3 प्रकार के कैंसर उपचार भी अब जीएसटी से बाहर हो गए हैं। छोटे वाहन, मोटरसाइकिल, टीवी, एसी और सीमेंट जैसी वस्तुओं पर कर दर 28 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत कर दी गई है, जिससे मध्यम वर्ग को राहत मिल सकती है।
लेकिन यह राहत समान रूप से वितरित नहीं है। पेट्रोल, डीज़ल और एलपीजी जैसे ईंधन जीएसटी के दायरे से बाहर ही हैं, जिससे महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं हो पा रहा। नेओस्पोरिन, ज़िंकोविट और रिफ्रेश आई ड्रॉप्स जैसी ज़रूरी दवाइयां अभी भी 5 प्रतिशत जीएसटी में आती हैं, जो गरीब तबके पर बोझ डालती हैं। किताबें, कॉपियां और पेंसिल जैसी शैक्षिक सामग्री पर कर वसूला जा रहा है, जबकि सरकार “पढ़ेगा इंडिया, बढ़ेगा इंडिया” का नारा देती है।
जीएसटी की पारदर्शिता पर भी सवाल उठ रहे हैं। अगस्त 2025 में मासिक संग्रह 1.86 लाख करोड़ रुपये पार कर गया, लेकिन यह धन कहां और कैसे खर्च हो रहा है, इस पर अस्पष्टता बनी हुई है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों का आरोप है कि उन्हें समय पर मुआवज़ा नहीं मिलता और केंद्र राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते फंड आवंटन में पक्षपात करता है। ममता बनर्जी और एम.के. स्टालिन जैसे नेताओं ने कहा है कि जीएसटी का इस्तेमाल विपक्षी राज्यों के विकास को रोकने के लिए किया जा रहा है।
छोटे व्यापारियों और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के लिए अनुपालन सरल बनाने पर अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। नया गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स अपीलीय अधिकरण (जीएसटीएटी) शुरू तो हो गया है, जिससे विवाद समाधान में थोड़ी मदद मिल सकती है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर भ्रम बना हुआ है।
आर्थिक दृष्टि से सरकार मानती है कि दरों में कटौती से राजस्व में लगभग 48,000 करोड़ रुपये की कमी होगी। वह उम्मीद कर रही है कि खपत बढ़ने और स्वैच्छिक अनुपालन के चलते यह घाटा पूरा हो जाएगा। परंतु विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक पेट्रोलियम और बिजली को जीएसटी में शामिल नहीं किया जाता, तब तक इनपुट लागत विकृत ही रहेगी।
नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को 12 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर देने का निर्णय सराहा गया है। इससे सौर और पवन उपकरण सस्ते होंगे और पर्यावरणीय लक्ष्यों को मदद मिल सकती है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक बुनियादी ढांचे की समस्याएं, जैसे ग्रिड कनेक्टिविटी और भूमि अधिग्रहण, हल नहीं होंगी, तब तक केवल कर राहत से इस क्षेत्र को गति नहीं मिलेगी।
व्यवसाय जगत विशेषकर छोटे व्यापारी इस सुधार को लेकर सावधान हैं। डिजिटल रिटर्न फाइलिंग और तेज़ रिफंड की व्यवस्था ज़रूर बेहतर कदम है, लेकिन आईटी से जुड़ी खामियां, प्रशिक्षण की कमी और वर्गीकरण विवादों का खतरा बना हुआ है।
राज्यों की चिंताएं भी गहरी हैं। 2026 में मुआवज़ा गारंटी समाप्त होने जा रही है, और विपक्ष शासित राज्य केंद्र पर वित्तीय केंद्रीकरण का आरोप लगा रहे हैं। इसने सहकारी संघवाद की भावना को कमजोर कर दिया है, जो जीएसटी लागू करते समय एक प्रमुख वादा था।
आखिरकार जीएसटी 2.0 दिखने में एक सुथरा ढांचा है, दरें कम हुई हैं और कुछ वास्तविक राहत भी मिली है। लेकिन यह अभी भी अधूरा सुधार है। इसका असर गरीब तबके तक सीमित रूप से पहुंच रहा है। महंगाई पर कोई ठोस असर नहीं है, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी वस्तुएं महंगी बनी हुई हैं और ईंधन की कीमतें अब भी पूरे अर्थतंत्र पर बोझ डाल रही हैं।
यह सुधार एक बार फिर वही पुराना सवाल खड़ा करता है—आम आदमी को वास्तव में क्या मिला? कर संग्रह कहां खर्च होता है? क्या यह सुधार केवल राजनीतिक घोषणा है या वास्तविक आर्थिक न्याय की दिशा में कदम? भारतीय नीति निर्माण का यह परिचित पैटर्न है—बड़े ऐलान, अधूरी क्रियान्वयन प्रक्रिया और विवादास्पद नतीजे। जीएसटी 2.0 को “तीसरी आज़ादी” कहा जा रहा है, लेकिन जब तक इसमें पारदर्शिता, समानता और राज्यों के साथ वास्तविक सहयोग नहीं होगा, तब तक यह केवल कागज़ी स्वतंत्रता ही साबित होगा।
शब्दों और नारेबाज़ी से परे, भारत को अभी भी उस असली आर्थिक स्वतंत्रता का इंतज़ार है, जो आम नागरिक के जीवन को सहज बना सके और विकास के अवसर सभी तक समान रूप से पहुंचा सके।