अमित पाण्डेय
सारांश
बिहार में चल रही विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया ने लोकतंत्र की बुनियाद पर गहरा सवाल खड़ा कर दिया है। चुनाव आयोग ने 65 लाख नाम मतदाता सूची से हटाए हैं, यह कहते हुए कि ये मृत, स्थानांतरित या दोहराए गए हैं। लेकिन विपक्ष का आरोप है कि वास्तविक मतदाताओं के नाम भी बिना जांच काटे गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी दी है कि यदि प्रक्रिया में कोई गैरकानूनी तत्व पाया गया तो पूरा अभियान रद्द हो सकता है और इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा। अदालत ने आधार को वैध पहचान दस्तावेज़ मानकर लाखों नागरिकों को राहत भी दी है। राजनीतिक दलों और संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि आयोग को न केवल निष्पक्ष होना चाहिए, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। मतदाता सूची की सफाई ज़रूरी है, लेकिन यदि यह प्रक्रिया पारदर्शी और जवाबदेह नहीं रही तो यह लोकतांत्रिक अधिकारों की कटौती में बदल जाएगी।
भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है। इसकी मजबूती की सबसे बड़ी गारंटी है — मतदाता का अधिकार। लेकिन जब इसी अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगने लगें, तो चिंता केवल चुनावी प्रक्रिया तक सीमित नहीं रहती, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढांचे की नींव हिल जाती है। बिहार में चल रही विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) प्रक्रिया इसी संदर्भ में एक बड़ा विवाद बन गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से इस प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए हैं और चेतावनी दी है कि यदि इसमें कोई गैरकानूनी तत्व पाया गया तो पूरे अभियान को रद्द किया जा सकता है, यह केवल एक प्रशासनिक टिप्पणी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को बचाने की पुकार है।
बिहार की SIR प्रक्रिया के तहत चुनाव आयोग ने लगभग 65 लाख नाम मतदाता सूची से हटाने की घोषणा की है। आयोग का कहना है कि इनमें मृत व्यक्तियों के नाम, स्थानांतरित मतदाता और दोहराए गए नाम शामिल हैं। सतह पर देखा जाए तो मतदाता सूची की सफाई एक नियमित और आवश्यक प्रक्रिया है। एक स्वच्छ सूची से चुनाव पारदर्शी बनते हैं और अवैध मतदान पर रोक लगती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह प्रक्रिया वास्तव में पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से चल रही है? विपक्षी दलों का आरोप है कि इस तथाकथित सफाई के नाम पर वास्तविक और जीवित मतदाताओं के नाम बिना ठोस जांच के काट दिए जा रहे हैं। उनके अनुसार यह “राजनीतिक सफाई” है, जिसका उद्देश्य मताधिकार को सीमित करना है।
इस विवाद को और जटिल बना देता है आधार कार्ड का मुद्दा। आधार देश का सबसे व्यापक पहचान पत्र है, जिसे करोड़ों भारतीय धारण करते हैं। लेकिन चुनाव आयोग ने लंबे समय तक इसे मतदाता सूची में शामिल करने से इनकार किया था। उसका तर्क था कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है। इस बीच बड़ी संख्या में ऐसे नागरिकों को सूची से बाहर होने का खतरा था, जिनके पास अन्य दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को देखते हुए आधार को 12वें वैध दस्तावेज़ के रूप में मान्यता दी। कोर्ट ने साफ कहा कि भले ही आधार नागरिकता का प्रमाण न हो, लेकिन यह पहचान और निवास का भरोसेमंद प्रमाण है। इस फैसले से उन लाखों लोगों को राहत मिली है जो केवल दस्तावेज़ी कमी के कारण अपने मताधिकार से वंचित हो सकते थे।
राजनीतिक विश्लेषकों और संवैधानिक विशेषज्ञों ने इस मामले पर गंभीर टिप्पणियां की हैं। प्रोफेसर अजय कुमार का कहना है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। यदि मतदाता सूची की सफाई राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित हो, तो यह सीधा मताधिकार की हत्या है। इसी तरह संविधान विशेषज्ञ डॉ. रचना श्रीवास्तव मानती हैं कि सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी आयोग को उसकी संवैधानिक मर्यादा की याद दिलाती है। आयोग को केवल निष्पक्ष होना ही नहीं, बल्कि निष्पक्ष दिखाई देना भी उतना ही जरूरी है। लोकतंत्र में भरोसे की नींव पारदर्शिता और समानता पर टिकी होती है।
यह विवाद केवल बिहार तक सीमित नहीं है। कई राज्य पहले ही केंद्र पर वित्तीय और राजनीतिक पक्षपात का आरोप लगाते रहे हैं। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने हाल ही में यह भी कहा है कि उन्हें समय पर जीएसटी मुआवजा नहीं मिल रहा और अब SIR प्रक्रिया के जरिए उनके विकास और राजनीतिक संतुलन को बाधित किया जा रहा है। इस प्रकार, मामला केवल मतदाता सूची की सफाई तक सीमित नहीं है, बल्कि यह केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास की गहराती खाई का प्रतीक बन गया है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मतदाता सूची लोकतंत्र की बुनियादी संरचना का हिस्सा है। यदि इसमें किसी भी प्रकार की गड़बड़ी पाई जाती है, तो चुनाव की वैधता ही संदिग्ध हो जाती है। यदि वास्तविक मतदाताओं को बाहर कर दिया गया तो यह केवल एक प्रशासनिक त्रुटि नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा। और यदि यह प्रवृत्ति एक राज्य में स्वीकार्य हो गई, तो इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा।
मतदाता सूची की सफाई निस्संदेह जरूरी है। समय-समय पर इसमें मृतक या स्थानांतरित व्यक्तियों के नाम हटाने होते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया इतनी पारदर्शी और जिम्मेदारीपूर्ण होनी चाहिए कि किसी भी नागरिक को अपने अधिकार से वंचित होने का डर न हो। इसके लिए आयोग को स्थानीय निकायों, पंचायतों और नागरिक समाज संगठनों की मदद लेनी चाहिए। नागरिकों को पर्याप्त समय और साधन उपलब्ध कराने चाहिए ताकि वे अपनी पात्रता साबित कर सकें।
आज लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है—विश्वास का संकट। जब चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान पर भी पक्षपात या राजनीतिक दबाव के आरोप लगते हैं, तो आम नागरिक का भरोसा कमजोर होता है। और लोकतंत्र तभी तक मजबूत है जब तक नागरिक विश्वास करते हैं कि उनकी आवाज़ और वोट दोनों की गिनती होती है।
बिहार की SIR प्रक्रिया अब केवल एक प्रशासनिक अभ्यास नहीं रह गई है। यह परीक्षण है—चुनाव आयोग की निष्पक्षता का, न्यायपालिका की सजगता का और लोकतंत्र की गहराई का। सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी ने साफ कर दिया है कि यदि मतदाता सूची में गड़बड़ियां पाई गईं तो यह केवल बिहार नहीं, पूरे देश की चुनावी व्यवस्था को प्रभावित करेगा। इसलिए अब ज़िम्मेदारी केवल चुनाव आयोग की नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की है कि वह पारदर्शिता और जवाबदेही को सर्वोपरि रखे।
लोकतंत्र केवल मतदान का अधिकार नहीं, बल्कि उस अधिकार के सुरक्षित और निष्पक्ष उपयोग की गारंटी भी है। यदि मतदाता सूची की सफाई नागरिकों को बाहर करने का माध्यम बन जाए, तो यह लोकतांत्रिक अधिकारों की कटौती होगी। यही कारण है कि आज यह बहस केवल बिहार की मतदाता सूची की नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा की है।