अमित पांडेय
उत्तराखंड में हालिया आपदाएँ—बाढ़, भूस्खलन, सुरंग दुर्घटनाएँ—प्राकृतिक नहीं, बल्कि नीतिगत लापरवाही और पर्यटन आधारित विकास मॉडल की विफलता का परिणाम हैं। सरकारें रोजगार और विकास के नाम पर पर्वतीय क्षेत्रों में भारी निर्माण कर रही हैं, जिससे न केवल पर्यावरण संकट गहरा रहा है, बल्कि स्थानीय लोगों का विस्थापन भी हो रहा है। वैज्ञानिक संस्थानों और पर्यावरणीय एजेंसियों की चेतावनियों को नजरअंदाज कर, सुरंगें, होटल और सड़कें बनाई जा रही हैं, जिनका लाभ बाहरी कंपनियों को मिलता है, जबकि स्थानीय लोग निम्न श्रेणी के कामों तक सीमित रह जाते हैं। राहत और पुनर्वास की प्रक्रिया भी असमान है—जनता को प्रतीकात्मक सेवा मिलती है, जबकि कॉरपोरेट्स को ठेके। यदि यही विकास है, तो यह विनाश का दूसरा नाम है। उत्तराखंड को बचाने के लिए पारदर्शिता, स्थानीय भागीदारी और पर्यावरणीय संवेदनशीलता को प्राथमिकता देनी होगी।
सितंबर की सुबह की ओस जब शरद ऋतु के आगमन की सूचना देती है, तो देश के मैदानी हिस्सों में उत्सव की तैयारी शुरू हो जाती है। बंगाल में दुर्गापूजा, गुजरात में गरबा, उत्तर प्रदेश में रामलीला और पूरे भारत में शारदीय नवरात्र की रंगत फैलती है। लेकिन उत्तराखंड में यह ऋतु अब उल्लास नहीं, उदासी लेकर आती है। पर्वतों की गोद में बसे इस राज्य में अब नदियाँ मातम मनाती हैं, पुल बह जाते हैं, सुरंगें धँस जाती हैं और सरकारें मौन हो जाती हैं।
उत्तराखंड, जिसे कभी देवभूमि कहा जाता था, अब एक प्रयोगशाला बन चुका है—जहाँ पर्यटन आधारित विकास के नाम पर विनाश की इबारत लिखी जा रही है। जोशीमठ की दरारें, सिलक्यारा सुरंग की त्रासदी, देहरादून, ऋषिकेश, मसूरी और हरिद्वार की बार-बार डूबती गलियाँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह आपदाएँ केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि नीतिगत विफलताओं और राजनीतिक अवसरवादिता की उपज हैं।
सरकारें कहती हैं कि पर्यटन से रोजगार मिलेगा, अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन आँकड़े कुछ और ही कहते हैं। उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 9.2% है, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। पर्यटन के नाम पर स्थानीय लोग गेटकीपर, वेटर और कुली बन गए हैं, जबकि होटल और कॉन्ट्रैक्ट्स बाहरी कंपनियों के हाथों में हैं। यह विकास नहीं, विस्थापन है।
टनकपुर–चंपावत राष्ट्रीय राजमार्ग पर करोड़ों खर्च हुए, लेकिन वह छह महीने से अधूरा पड़ा है। दरारें, धंसाव और बंदी आम हैं। इसके बावजूद सरकार नए मार्गों की योजना बना रही है—जैसे विनाश को और गहरा करना चाहती हो। जोशीमठ की दरारें टनलिंग से जुड़ी थीं, फिर भी सिलक्यारा सुरंग बनाई गई। तकनीक विफल हुई, मजदूर फंसे, और सरकार ने इसे “प्रमाणित” कहकर पल्ला झाड़ लिया।
वैज्ञानिक चेतावनियाँ लगातार दी गईं। वाडिया संस्थान ने बताया कि उत्तराखंड भूकंप क्षेत्र V में आता है, जहाँ निर्माण कार्य बेहद जोखिमभरा है। NGT ने 2018 में ही मसूरी और नैनीताल में अतिक्रमण पर रोक लगाने की बात कही थी, लेकिन अवैध होटल आज भी खड़े हैं। IMCR ने चेताया कि हिमालय की परतें इतनी भारी निर्माण नहीं झेल सकतीं। लेकिन सरकार ने इन चेतावनियों को अनसुना कर दिया।
प्रधानमंत्री मोदी, जो उत्तराखंड से भावनात्मक जुड़ाव जताते हैं, अब तक राहत पैकेज की घोषणा नहीं कर पाए हैं। मुख्यमंत्री धामी की गुहारें भी अनसुनी रहीं। “सेवा पखवाड़ा” के नाम पर भाजपा कार्यकर्ता प्रतीकात्मक सेवा करते हैं, जबकि जनता वास्तविक राहत की माँग करती है।
“आपदा में अवसर” अब उत्तराखंड की नई नीति बन चुकी है। पत्रकार हरीश जोशी लिखते हैं—यह राहत नहीं, संसाधनों की लूट है। स्कूलों की जमीन होटल को दी जा रही है, जबकि पहाड़ी जिलों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ दम तोड़ रही हैं। पिथौरागढ़ और चंपावत में युवा बेरोजगारी दर 15% से अधिक है।
सरकार को जवाब देना होगा—कितनी आपदाएँ आईं? कितना नुकसान हुआ? कितने युवाओं को रोजगार मिला? यदि विकास का मतलब विस्थापन है, तो यह विकास नहीं—विनाश है।
उत्तराखंड को बचाना है, तो विकास की परिभाषा बदलनी होगी। पर्वतीय राज्य को पर्यटन की प्रयोगशाला नहीं, संवेदनशील भूगोल मानना होगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थानीय उद्योगों को प्राथमिकता देनी होगी। वैज्ञानिक संस्थानों को परियोजनाओं पर वीटो अधिकार देना होगा। और सबसे ज़रूरी—जनता को केवल दर्शक नहीं, भागीदार बनाना होगा।
जब देश नवरात्रि के उल्लास में डूबा है, तब उत्तराखंड के पहाड़ों में केवल एक आवाज गूंज रही है—भूस्खलन की गर्जना, नदियों की चीख, और विस्थापित परिवारों की चुप्पी। यह तबाही नियति नहीं है, यह नीति है। जब नेता हिमालय से प्रेम की बात करते हैं, तो जनता पूछती है—प्रेम का प्रमाण क्या है?
उत्तराखंड को बचाने के लिए अब मौन नहीं, प्रतिरोध चाहिए। वरना पर्वतों की पूजा करने वाले लोग उन्हीं पर्वतों की कब्रगाह बनते जाएंगे।