राहुल गांधी ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में दिया गया अपना भाषण जिस साहस और बेबाकी से रखा, उसने भारतीय राजनीति की पुरानी बहस को फिर से जीवित कर दिया है। उनका यह कहना कि भाजपा और आरएसएस की विचारधारा के मूल में “कायरता” है, केवल एक राजनीतिक व्यंग्य नहीं बल्कि वैचारिक चुनौती भी है। उन्होंने विदेश मंत्री के उस बयान की ओर इशारा किया जिसमें चीन के सामने भारत की सीमाओं का उल्लेख था और साथ ही सावरकर की उस स्वीकारोक्ति को याद दिलाया कि उन्होंने दोस्तों संग एक मुस्लिम व्यक्ति को पीटकर खुशी महसूस की थी। राहुल गांधी का तर्क साफ है—शक्ति के सामने झुकना और कमजोर पर प्रहार करना कायरता है, और यही संघ की विचारधारा का सार है।
यह आरोप नया नहीं है। 1925 में स्थापित आरएसएस पर स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से यह आरोप लगता रहा कि वह राष्ट्रीय संघर्ष की मुख्यधारा से दूर रहा। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया गया और उसे अपनी देशभक्ति साबित करनी पड़ी। समय-समय पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल यह कहते रहे हैं कि संघ का चरित्र बहुलतावाद और सह-अस्तित्व की भारतीय परंपरा से मेल नहीं खाता। आज राहुल गांधी उसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सामने रखकर यह तर्क दे रहे हैं कि लोकतांत्रिक ढाँचा दरअसल संघ-भाजपा की राजनीति के लिए स्वाभाविक रूप से असुविधाजनक है।
राहुल गांधी की चिंता केवल वैचारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। उन्होंने छात्रों से कहा कि दुनिया में हर साम्राज्य ऊर्जा संक्रमण से खड़ा हुआ—ब्रिटेन ने भाप इंजन और कोयले से, अमेरिका ने पेट्रोल और इंजन से। अब चीन बैटरी और इलेक्ट्रिक मोटर की होड़ में आगे है। भारत की चुनौती यह है कि वह लोकतांत्रिक ढाँचे में रहकर उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था कैसे बनाए। उनका संकेत साफ था—चीन ने अधिनायकवाद में उत्पादन का मॉडल बना लिया, पर भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा तभी सफल होगा जब वह इस चुनौती को जवाब दे सके। यहाँ लोकतंत्र केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा की शर्त है।
लद्दाख के हालिया आंदोलनों और सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी का मुद्दा उठाकर राहुल गांधी ने भाजपा पर संस्कृति और पहचान कुचलने का आरोप लगाया। उनके अनुसार भाजपा की राजनीति विविधताओं को स्थान देने के बजाय उन्हें दबाने में विश्वास रखती है। यह दृष्टिकोण सीधे लोकतांत्रिक ढाँचे पर सवाल उठाता है, क्योंकि लोकतंत्र की आत्मा ही विविधता है।
उधर, भाजपा ने पूर्वानुमानित पलटवार किया। प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने राहुल गांधी को “लीडर ऑफ प्रोपेगेंडा” कहकर खारिज कर दिया और विदेश में भारत की आलोचना करने का आरोप लगाया। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने राहुल गांधी को “शहरी नक्सल” कहा और यह तक कहा कि वे सात जन्म लेकर भी संघ स्वयंसेवक नहीं बन सकते। भाजपा का बचाव एक तरह से आक्रामक राष्ट्रवाद का है, जो आलोचना को सीधा देशद्रोह की श्रेणी में डाल देता है।
यहाँ सबसे अहम सवाल यही है—क्या लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना को राष्ट्रद्रोह माना जाना चाहिए? इतिहास गवाह है कि जब 1975 में आपातकाल लगाया गया, तब लोकतंत्र को बचाने के लिए विपक्ष ने जेलें भरीं। उस समय सत्ता की आलोचना करना देशभक्ति माना गया। आज वही आलोचना भाजपा की दृष्टि में राष्ट्रविरोधी ठहराई जाती है। यह विरोधाभास भारतीय राजनीति की मौजूदा दिशा का आईना है।
राहुल गांधी का “कायरता” वाला बयान भारतीय लोकतंत्र की जड़ों पर सवाल उठाता है। भाजपा के लिए यह हमला असहनीय है क्योंकि यह उसकी विचारधारा की वैधता को चुनौती देता है। लेकिन लोकतंत्र का सार यही है कि वैचारिक टकराव खुले मंच पर हो, सवाल उठें और जवाब दिए जाएँ। अगर लोकतंत्र इतना कमजोर हो कि आलोचना सुन न सके, तो फिर यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि बहुमत का शासन मात्र है।
भारत का भविष्य इसी प्रश्न पर टिका है—क्या हम विविधता, सहिष्णुता और आलोचना को लोकतंत्र की ताक़त मानेंगे या बहुमत की ताक़त से उसे दबाने की कोशिश करेंगे? राहुल गांधी का बयान बहस को कड़वा बना सकता है, लेकिन यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक भी है।