भारत में जहाँ सनातन धर्म ने सदैव संयम, न्याय और मर्यादा को जीवन का आधार माना, वहीं आज विरोध की भाषा बदल गई है। पहले असहमति को तर्क से व्यक्त किया जाता था, अब जूते, स्याही और थप्पड़ से। प्रश्न यह है कि क्या यह नया रूप किसी धर्म या संस्कृति का परिचायक है, या फिर समाज के भीतर बढ़ते असंतोष और तंत्र के प्रति अविश्वास का परिणाम?
सनातन ग्रंथों में धर्म का अर्थ बताया गया है—वह जो समाज को स्थिर रखे, न्याय और संतुलन का मार्ग दिखाए। धर्म का स्वरूप कभी हिंसा या अपमान नहीं रहा, बल्कि वह आत्मसंयम और सहिष्णुता का पर्याय था। मगर हाल के वर्षों में जब-जब व्यवस्था पर जनविश्वास डगमगाया, विरोध के साधन भी उग्र और प्रतीकात्मक होते चले गए।
पहला बड़ा उदाहरण 7 अप्रैल 2009 को सामने आया, जब तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर पत्रकार जर्नैल सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जूता फेंका। जर्नैल सिंह दैनिक जागरण से जुड़े पत्रकार थे और वे 1984 के सिख दंगों के आरोपी जगदीश टाइटलर को सीबीआई द्वारा क्लीन चिट दिए जाने से बेहद क्षुब्ध थे। उनका यह कदम उनकी पीड़ा का प्रतीक था, पर साथ ही एक खतरनाक मिसाल भी। जब न्यायिक संस्थाओं से भरोसा टूटता है तो भावनात्मक प्रतिरोध उभरता है, पर यह रास्ता समाज को असंतुलित कर देता है।
दूसरी घटना 19 अप्रैल 2012 की है, जब कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले के आरोपी और तत्कालीन कांग्रेस सांसद सुरेश कलमाड़ी पर दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर हरविंदर सिंह नामक युवक ने थप्पड़ मारा। यह वही व्यक्ति था जिसने पहले कृषि मंत्री शरद पवार पर भी हमला किया था। उसका गुस्सा भ्रष्टाचार और राजनीतिक ढोंग पर था, लेकिन इसने यह दिखाया कि जनता की नाराज़गी अब सभ्य दायरे से बाहर जा रही है। धर्म की दृष्टि से यह न्याय का नहीं, बल्कि अराजकता का रूप था।
इसके बाद अरविंद केजरीवाल पर हुए स्याही हमले (2016, बीकानेर और दिल्ली) ने इस प्रवृत्ति को और मजबूत किया। बीकानेर में छात्र संगठन से जुड़े एक युवक ने उन्हें “राष्ट्र विरोधी” कहकर स्याही फेंकी, जबकि दिल्ली में “ऑड–ईवन योजना” के धन्यवाद कार्यक्रम में एक महिला ने मंच पर स्याही और कागज़ फेंके। इन घटनाओं में राजनीतिक असहमति की जगह व्यक्तिगत आक्रोश ने ले ली। विरोध प्रदर्शन अब कैमरों के लिए किया जाने वाला एक दृश्य बन गया है, जिसमें न तो संवाद है और न समाधान।
यह प्रश्न केवल समाज से नहीं, बल्कि सरकार और न्यायपालिका से भी है कि आखिर जनता इस हद तक असंतुष्ट क्यों है कि अपनी बात कहने के लिए हिंसक प्रतीकों का सहारा ले रही है? क्या न्याय में देरी और निर्णयों की विवादास्पद प्रकृति ने यह स्थिति पैदा की है? यदि ऐसा है तो यह केवल नागरिक की गलती नहीं, बल्कि व्यवस्था की असफलता भी है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिन लोगों ने यह कृत्य किए, वे सभी अपने असंतोष को किसी न किसी “धर्म” या “न्याय” की भावना से जोड़ते हैं। परंतु यह प्रश्न उठाना आवश्यक है कि क्या जूता फेंकना, स्याही डालना या थप्पड़ मारना किसी भी धार्मिक संस्कृति का हिस्सा हो सकता है? स्वामी विवेकानंद ने जब हिंदू धर्म की व्याख्या की थी, तो उन्होंने क्रोध नहीं, करुणा को धर्म का आधार बताया था। उनका धर्म आत्मबल देता था, दूसरों को नीचा दिखाने का नहीं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार इस प्रकार की घटनाओं को “रोष का प्रतीक” कहकर नज़रअंदाज़ न करे, बल्कि यह समझे कि समाज का धैर्य टूट रहा है। यदि असंतोष को शांतिपूर्ण ढंग से व्यक्त करने के रास्ते कमजोर होंगे, तो आक्रोश स्वाभाविक रूप से हिंसक रूप लेगा।
भारत की संस्कृति कभी हिंसा की नहीं, बल्कि तर्क, चर्चा और सहिष्णुता की रही है। लेकिन अगर यह “जूता संस्कृति” समाज में स्वीकार्य बनती जा रही है, तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह केवल नेताओं पर हमले नहीं, बल्कि विचार पर प्रहार हैं।
इसलिए सवाल साफ है: क्या यह वही देश है जहाँ धर्म और संस्कृति ने सभ्यता की परिभाषा दी थी, या अब वह राष्ट्र बन रहा है जहाँ आक्रोश ही संवाद का साधन बन गया है? सरकार और समाज दोनों को तय करना होगा—क्या हम धर्म की राह पर हैं या अधर्म के शोर में अपनी पहचान खो रहे हैं?