- बिहार का 2025 चुनाव घोषणापत्रों से नहीं, बल्कि जोड़-तोड़, कलह और आरोपों से तय हो रहा है। तेजस्वी यादव का रोजगार वादा और महिलाओं को 10,000 रुपये देने की योजना बहस का केंद्र हैं। प्रशांत किशोर की नई राजनीति को भी झटका लगा है। गठबंधन अस्थिर हैं, मतदाता भ्रमित हैं, और लोकतंत्र सियासी अवसरवाद के रंगमंच में बदलता दिख रहा है।
अमित अमित पांडे: संपादक
बिहार का चुनाव इस बार कुछ अलग है — न घोषणापत्रों की गूंज है, न जनहित की बहस। राजनीति घरों के भीतर सिमट गई है, जहां उम्मीदवार हटाए जा रहे हैं, राहत राशियाँ बांटी जा रही हैं, और नेता आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं। लोकतंत्र का यह चेहरा अब उस दौर में पहुँच गया है जहाँ वादों की जगह संशय और रणनीति ने ले ली है। “मैं तो भोला-भाला वसीम था, और वो फनकार सियासत का; जब उसे झुकने की बारी आई, उसने मुझसे हाथ मिला लिया।”
यह शेर आज के बिहार की राजनीति पर सटीक बैठता है — सियासत जहां अवसरवाद और जोड़-तोड़ की कला में तब्दील हो चुकी है।
तेजस्वी यादव का “हर घर एक नौकरी” वाला वादा इस चुनाव का इकलौता ठोस वादा था, मगर बहस उसमें भी उसकी सम्भावना पर नहीं, बल्कि मज़ाक पर केंद्रित रही। सत्ता पक्ष ने इसे खोखला बताया, जबकि खुद एनडीए ने अब तक कोई स्पष्ट विज़न डॉक्युमेंट जारी नहीं किया। सिर्फ़ ‘विकास’ और ‘नारी सशक्तिकरण’ के नारों के बीच असली सवाल — बेरोज़गारी, पलायन, शिक्षा — गायब हैं।
इसी बीच महिलाओं को 10,000 रुपये की राशि का वितरण चर्चा में है। गृह मंत्री ने इसे महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने का प्रयास बताया, पर विपक्ष ने इसे खुला चुनावी प्रलोभन कहा। कांग्रेस प्रवक्ता प्रेमचंद्र मिश्रा ने आरोप लगाया कि “मतदान से पहले इस तरह का हस्तांतरण चुनाव आयोग के नियमों का उल्लंघन है।” जबकि जेडीयू इसे “पहले से स्वीकृत योजना” बताता रहा। चुनाव आयोग ने अब तक कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन जनता समझ चुकी है कि जब घोषणापत्र मरते हैं तो नैतिकता की बहस उनकी जगह ले लेती है।
प्रशांत किशोर, जो कभी मोदी और ममता दोनों के रणनीतिकार रहे, अब जन सुराज आंदोलन के जरिये “नई राजनीति” का वादा लेकर आए थे। मगर जिस उम्मीदवार को उन्होंने चुना, उसी ने नामांकन वापस ले लिया — और वह भी तब जब उसकी तस्वीरें केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के साथ वायरल हुईं। किशोर की आंखों में उस दिन की लाली और मायूसी बिहार की राजनीति की सच्चाई बयान कर रही थी। उन्होंने कहा, “बिना दबाव कोई उम्मीदवार इस वक्त नाम वापस नहीं लेगा।”
पत्रकार सुरेंद्र किशोर का कहना था — “किशोर ने डेटा को भक्ति समझ लिया। बिहार में वोट गिने नहीं जाते, पाले जाते हैं।” यही वजह है कि जन सुराज जैसे प्रयोग अभी आदर्श तो लगते हैं, पर ज़मीन पर असहाय दिखते हैं। फिर भी, किशोर का हस्तक्षेप अहम है क्योंकि उन्होंने युवाओं, रोजगार और पारदर्शिता की बात छेड़ी है — ऐसे मुद्दे जिन पर पारंपरिक दल अब मौन हैं।
दूसरी ओर, गठबंधन की राजनीति और भी उलझी हुई है। विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी ने आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन में 15 सीटें निकाल लीं, जबकि कांग्रेस को अपेक्षा से कम पर संतोष करना पड़ा। एनडीए और महागठबंधन — दोनों के एक-एक उम्मीदवार चुनाव आयोग द्वारा अयोग्य घोषित किए जा चुके हैं। यानी तस्वीर और धुंधली हो गई है।
निशाद समुदाय की आबादी राज्य में भले 3 प्रतिशत हो, लेकिन उसकी क्षेत्रीय उपस्थिति ने उसे ‘पावर बैलेंस’ का केंद्र बना दिया है। बिहार की राजनीति अब नीति नहीं, संख्या और जातीय समीकरणों के गणित पर टिकी है। नितीश कुमार के लिए भी यह चुनाव सरल नहीं है — बीजेपी के साथ उनके रिश्ते तनावरहित नहीं हैं, और चिराग पासवान के साथ मतभेद खुलकर सामने हैं। उधर कांग्रेस और आरजेडी के बीच भी अविश्वास की दीवार कायम है।
ग्रामीण इलाकों में लोग कहते हैं, “सब एक जैसे हैं।” यह वाक्य बिहार के मौजूदा माहौल का सबसे सटीक बयान है। महिलाएँ सोच में हैं कि जो पैसा मिला, वह सशक्तिकरण है या प्रलोभन। युवा पूछ रहे हैं कि दस लाख नौकरियाँ कब और कैसे मिलेंगी। गांवों की चौपालों और चाय की दुकानों पर चर्चा है, मगर उम्मीद धुंधली।
फिर भी कुछ किरणें हैं। पूर्णिया, सहरसा और गया के इलाकों से रिपोर्ट हैं कि किसान सिंचाई, शिक्षक वेतन और स्वास्थ्य पर गंभीर बहस कर रहे हैं — बिना किसी दल के झंडे के। यह बिहार की उम्मीद है, जहां जनता अब भी लोकतंत्र में भरोसा रखती है, भले नेता न रख पाएं।
बिहार का यह चुनाव महज़ 243 सीटों की लड़ाई नहीं है। यह राजनीति की विश्वसनीयता पर जनमत संग्रह है। अगर यह राज्य फिर से नीति-आधारित राजनीति की ओर लौट सका तो देश के लिए लोकतांत्रिक सुधार की राह दिखा सकता है। लेकिन अगर मौजूदा दौर की तरह राजनीति सिर्फ़ संदेह, लाभ और तमाशे में उलझी रही, तो बिहार लोकतंत्र का नहीं, नाटक का मंच बन जाएगा — शोरगुल से भरा, रंगीन, मगर अंदर से खाली।
इस बार की जंग सड़कों पर नहीं, नेताओं के घरों के भीतर लड़ी जा रही है। जब तक बहस जनता की ज़िंदगी पर वापस नहीं लौटेगी, तब तक बिहार की राजनीति वही रहेगी जो आज है — देश के लोकतंत्र की सबसे गहरी विडंबना का आईना।