अमित पांडे: संपादक
भारत सरकार द्वारा हाल ही में अमेरिका से एलपीजी आयात के लिए किया गया एक वर्षीय अनुबंध भारतीय ऊर्जा राजनीति में एक नया अध्याय खोलता है। यह पहली बार है जब भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने अमेरिकी आपूर्तिकर्ताओं के साथ संरचित अनुबंध किया है। इस कदम को सरकार ऊर्जा स्रोतों के विविधीकरण और अमेरिका के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने के रूप में प्रस्तुत कर रही है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दबाव का परिणाम है। भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक असंतुलन लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है और ऊर्जा आयात को इस असंतुलन को कम करने के साधन के रूप में देखा जा रहा है।
इस अनुबंध के तहत भारत 2.2 मिलियन टन प्रति वर्ष एलपीजी आयात करेगा, जो भारत की कुल वार्षिक एलपीजी आयात का लगभग दस प्रतिशत है। इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन ने संयुक्त रूप से यह अनुबंध किया है। अमेरिकी कंपनियाँ Chevron, Phillips 66 और TotalEnergies Trading इस आपूर्ति की जिम्मेदारी निभाएँगी। भारत अपनी 60 प्रतिशत से अधिक एलपीजी आवश्यकता आयात करता है और अब तक यह आयात मुख्यतः सऊदी अरब, यूएई, क़तर और कुवैत से होता रहा है। ऐसे में अमेरिका से आयात का निर्णय भारत की ऊर्जा नीति में एक बड़ा बदलाव है।
भारत की ऊर्जा निर्भरता का परिदृश्य देखें तो यह स्पष्ट होता है कि देश आयात पर अत्यधिक निर्भर है। कच्चे तेल का 88 प्रतिशत, एलएनजी का लगभग 50 प्रतिशत और एलपीजी का 60 प्रतिशत से अधिक आयातित है। इस सौदे का वित्तीय महत्व इसलिए भी है क्योंकि अमेरिका ने भारत पर 50 प्रतिशत तक के टैरिफ लगाए हैं, जिससे भारतीय निर्यात प्रभावित हुआ है। ऐसे में ऊर्जा आयात बढ़ाकर भारत व्यापार घाटा कम करने की कोशिश कर रहा है। भारत का वार्षिक एलपीजी आयात लगभग 22 से 23 मिलियन टन है। यदि अमेरिका से 2.2 मिलियन टन आयात होता है, तो यह लगभग दस प्रतिशत हिस्सेदारी होगी। इससे अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों को बड़ा बाजार मिलेगा और भारत को पश्चिम एशिया पर निर्भरता कम करने का अवसर मिलेगा।
राजनीतिक दृष्टि से यह सौदा कई सवाल खड़े करता है। ट्रंप प्रशासन ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि अमेरिका भारत का प्रमुख तेल और गैस आपूर्तिकर्ता बनना चाहता है। भारत ने हाल के वर्षों में अमेरिकी कच्चे तेल और एलएनजी आयात बढ़ाया है। यह सौदा भारत की ऊर्जा सुरक्षा को अमेरिकी भू-राजनीतिक हितों से जोड़ता है। सवाल यह है कि क्या भारत वास्तव में ऊर्जा विविधीकरण कर रहा है या अमेरिकी दबाव में अपनी नीति बदल रहा है। पश्चिम एशिया से आयात सस्ता और भौगोलिक रूप से सुविधाजनक है, जबकि अमेरिका से आयात लंबी दूरी और उच्च लॉजिस्टिक लागत के कारण महंगा पड़ सकता है।
घरेलू स्तर पर इस सौदे का असर और भी गहरा है। भारत में एलपीजी मुख्यतः घरेलू रसोई गैस के रूप में उपयोग होती है। सरकार गरीब और ग्रामीण परिवारों को एलपीजी पर सब्सिडी देती है। उज्ज्वला योजना के तहत करोड़ों परिवारों को एलपीजी कनेक्शन दिए गए हैं। यदि अमेरिकी एलपीजी महंगी पड़ती है, तो सरकार को सब्सिडी पर अतिरिक्त बोझ उठाना होगा। इससे वित्तीय घाटा बढ़ सकता है। भारत का राजकोषीय घाटा पहले ही GDP का लगभग 5.5 प्रतिशत है। ऊर्जा आयात महंगा होने पर यह और बढ़ सकता है।
वैश्विक ऊर्जा बाज़ार में अमेरिका शेल गैस और एलपीजी उत्पादन में अग्रणी है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता है। भारत की ऊर्जा सुरक्षा रणनीति अब अमेरिका पर अधिक निर्भर होती दिख रही है। यह निर्भरता भारत की विदेश नीति को प्रभावित कर सकती है। पश्चिम एशिया के साथ भारत के पारंपरिक संबंध कमजोर हो सकते हैं, जबकि अमेरिका के साथ व्यापारिक समझौते में भारत को राजनीतिक रियायतें देनी पड़ सकती हैं।
इस सौदे को केवल ऊर्जा विविधीकरण का प्रयास नहीं कहा जा सकता। यह अमेरिकी दबाव और व्यापारिक असंतुलन को संतुलित करने की रणनीति भी है। भारत को अल्पकालिक लाभ यह होगा कि अमेरिका के साथ व्यापारिक संबंध सुधरेंगे। लेकिन दीर्घकालिक जोखिम यह है कि ऊर्जा महंगी होगी, सब्सिडी पर बोझ बढ़ेगा और विदेश नीति में लचीलापन कम होगा। भारत को चाहिए कि वह ऊर्जा आयात नीति को केवल दबाव में नहीं, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक हितों और भौगोलिक समीकरणों को ध्यान में रखकर बनाए। अमेरिका से आयात एक विकल्प हो सकता है, लेकिन इसे संतुलित करना आवश्यक है ताकि भारत की ऊर्जा सुरक्षा और वित्तीय स्थिरता प्रभावित न हो।
इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भारत का यह निर्णय एक जटिल समीकरण का हिस्सा है। एक ओर अमेरिका के साथ व्यापारिक संबंधों को सुधारने की आवश्यकता है, दूसरी ओर घरेलू वित्तीय बोझ और सब्सिडी का दबाव है। तीसरी ओर पश्चिम एशिया के साथ पारंपरिक ऊर्जा संबंधों को बनाए रखना भी जरूरी है। भारत को इन तीनों स्तरों पर संतुलन साधना होगा। यदि यह संतुलन बिगड़ता है तो भारत की ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता दोनों खतरे में पड़ सकती हैं।
अंततः यह कहा जा सकता है कि अमेरिका से एलपीजी आयात का यह अनुबंध भारत की ऊर्जा राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम है, लेकिन इसके पीछे दबाव और व्यापारिक असंतुलन की कहानी भी छिपी है। भारत को इस सौदे को केवल विविधीकरण के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यापक रणनीतिक चुनौती के रूप में देखना चाहिए। ऊर्जा सुरक्षा, वित्तीय स्थिरता और विदेश नीति के त्रिकोण में यह सौदा भारत के लिए एक कठिन परीक्षा साबित हो सकता है।







