हरेन्द्र प्रताप की विशेष रिपोर्ट
नई दिल्ली, 22 नवंबर। समाचार पत्र, पत्रिका, डिजिटल मीडिया इत्यादि से पत्रकारिता की जाती है लेकिन पुस्तक से पुस्तकारिता का नया क्षेत्र खुलता है जिसमें तथ्य, तर्क एवं सत्य अनंत काल के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। डॉ. बापूराव देसाई की पुरानी पुस्तक ” विश्वभाषा हिंदी अनुसंधानात्मक निबंध “
इसी कड़ी में एक नया खोजपूर्ण उदाहरण है !
पुस्तक के अध्याय 18 में ” पीएच. डी. प्रबंध क्या अबंध ” शीर्षक के अंतर्गत डॉ. देसाई लिखते हैं – कुलपति के साथ – साथ, ये दोनों विशेषज्ञों के साथ जब हमने इसका साक्षात्कार ( इंटरव्यू ) लेना आरंभ किया; तब उसने हिन्दी साहित्य के इतने नदारद तारे तोड़ कर हमारे सामने अशुद्ध हिन्दी का प्रदर्शन कर दिखाया; तब कुलपति के साथ – साथ दोनों हिन्दी विशेषज्ञ ने कहा कि – ” डॉ. देसाई जी, पहले हमें यह बतलाइए कि आपने इसे कैसे लिया ?”
” सर, वह विकलांग का पद था।”
” जी, लेकिन वह विकलांग तो नहीं दिखता, दूसरी बात, वह कितनी तेज मोटरसायकिल चलाता है, खैर, पर इसका यह मतलब नहीं कि स्वयं विकलांग न होते हुए भी विकलांग प्रदर्शित किया और साथ में विभाग में वह हिन्दी को भी बोलने में, पढ़ाने में, सोच में, लिखने में विकलांगता तो न करे।”

दिलचस्प पुस्तकारिता का प्रदर्शन कर रही है यह पुस्तक ! सवाल है कि हिन्दी के उन विद्वानों ने यह किसके लिए कहा है ? इसका उत्तर यह पत्रकार अपनी अगली किसी विशेष रिपोर्ट में आपको बताने की कोशिश करेगा। लेकिन मुख्य सवाल कहीं अधिक महत्वपूर्ण एवं भयावह है !
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अनेक बुद्धिजीवी पूछ रहे हैं – क्या हिन्दी को और हिन्दी की दुनिया को विकलांग बनाने की कोशिश की जा रही है ? भारत में वर्तमान शैक्षणिक व्यवस्था भारतीय शिक्षा को विकलांगता की दहलीज पर खड़ी कर रही है ? यदि नहीं तो फिर पुस्तक लेखक को शिक्षा जगत में इस तरह के उदाहरण क्यों मिल रहे हैं ? और, यदि हां तो अभी तक ” शिक्षा जगत के इन नमूनों ” के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? कहीं पूरी शैक्षणिक व्यवस्था ही विकलांग तो नहीं बन गई है या उसे चमत्कारिक ढंग से दिव्यांग बनाने की कोशिश तो नहीं जारी है ?
देश के अनेक प्रोफेसरों का मत है कि शिक्षा विभाग को इस पुस्तकारिता का संज्ञान लेना चाहिए और दोषियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए ताकि शिक्षा की सरकारी व्यवस्था में लोगों का भरोसा फिर से कायम हो सके।






