अमित पांडे: संपादक
भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया अब केवल संवाद का माध्यम नहीं रहा, बल्कि यह सत्ता और विपक्ष के बीच वैचारिक युद्धभूमि बन चुका है। 27 नवम्बर को दिल्ली में भाजपा प्रवक्ता और सांसद संबित पात्रा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर आरोप लगाया कि वे विदेशों से संचालित खातों के जरिए “एंटी-इंडिया नैरेटिव” गढ़ रहे हैं। पात्रा ने दावा किया कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, सिंगापुर और अमेरिका से जुड़े अकाउंट्स भारत में चुनाव आयोग, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ झूठी कहानियाँ फैला रहे हैं।
कांग्रेस ने इस आरोप का तीखा प्रतिवाद किया। प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेते ने कहा कि भाजपा के समर्थक भी विदेशों से अकाउंट चला रहे हैं—गुजरात भाजपा का अकाउंट आयरलैंड से, स्टार्टअप इंडिया का अकाउंट आयरलैंड से और यहाँ तक कि डीडी न्यूज़ और श्री श्री रविशंकर का अकाउंट अमेरिका से संचालित दिखता है। उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा कि “भाजपा या नरेंद्र मोदी राष्ट्र नहीं हैं।”
यह विवाद केवल तकनीकी नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा है। सोशल मीडिया पर अकाउंट का लोकेशन बदलना कोई असामान्य बात नहीं है। ट्विटर (अब X) ने स्वयं स्पष्ट किया है कि लोकेशन डेटा यात्रा या तकनीकी कारणों से बदल सकता है। ऐसे में केवल लोकेशन के आधार पर किसी राजनीतिक दल को “राष्ट्र विरोधी” ठहराना न तो तार्किक है और न ही ऐतिहासिक दृष्टि से उचित।
भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका हमेशा से सत्ता को आईना दिखाने की रही है। 1975 के आपातकाल के दौरान जब प्रेस पर सेंसरशिप लगी, तब भूमिगत साहित्य और वैकल्पिक माध्यमों ने जनता तक सच्चाई पहुँचाई। आज वही भूमिका सोशल मीडिया निभा रहा है। यदि जनता चुनाव आयोग की विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया पर सवाल उठा रही है, तो यह लोकतांत्रिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही आयोग को अधिकार दिया हो, लेकिन जनता का अविश्वास इस बात का संकेत है कि संस्थाओं की पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं।
भाजपा का आरोप कि राहुल गांधी विदेशों में जाकर भारत विरोधी माहौल बनाते हैं, भी ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, भारतीय नेताओं ने विदेशों में जाकर भारत की नीतियों पर अपनी दृष्टि रखी है। वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर भारत की आवाज़ बुलंद की थी। आलोचना और आत्ममंथन राष्ट्रविरोध नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा है।
कांग्रेस का पलटवार कि “देश मोदी सरकार से खतरे में है” भी केवल राजनीतिक बयान नहीं है। आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और संस्थाओं की स्वायत्तता पर उठते सवाल इस दावे को आधार देते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी दर पिछले वर्षों में उच्च स्तर पर रही है। वहीं, अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें भारत में प्रेस स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गिरती रैंकिंग की ओर इशारा करती हैं।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि सोशल मीडिया केवल प्रचार का मंच नहीं, बल्कि जनभावनाओं का दर्पण भी है। जब जनता “वोट चोरी” या चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाती है, तो यह लोकतंत्र की चेतावनी है। इतिहास गवाह है कि जब संस्थाएँ जनता का विश्वास खो देती हैं, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। 1977 में जनता ने आपातकाल के खिलाफ वोट देकर यही संदेश दिया था।
आज का विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम सोशल मीडिया को केवल “फेक नैरेटिव” का अड्डा मानेंगे या इसे जनता की असली आवाज़ समझेंगे। भाजपा का आरोप और कांग्रेस का प्रतिवाद दोनों ही राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं। लेकिन लोकतंत्र का सार यही है कि हर आवाज़ सुनी जाए, चाहे वह देश के भीतर से उठे या बाहर से।
भारत की राजनीतिक परंपरा में आलोचना को राष्ट्रविरोध नहीं माना गया। महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए भी सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाया। आज यदि विपक्ष सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहा है, तो यह उसी परंपरा का विस्तार है। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष का संघर्ष अनिवार्य है, क्योंकि यही संघर्ष संस्थाओं को जवाबदेह बनाता है।
इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी या उनके समर्थक “एंटी-इंडिया नैरेटिव” बना रहे हैं, लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित करना है। असली सवाल यह है कि क्या सरकार जनता के सवालों का जवाब देने को तैयार है। सोशल मीडिया पर बढ़ता आक्रोश इस बात का संकेत है कि लोग सरकार की नीतियों से असंतुष्ट हैं। और इतिहास बताता है कि जब जनता असंतुष्ट होती है, तो सत्ता का संतुलन बदल जाता है।
लोकतंत्र का आईना यही कहता है कि राष्ट्र किसी एक दल या नेता का नहीं होता। राष्ट्र जनता का होता है, और जनता की आवाज़ चाहे सोशल मीडिया से आए या सड़क से, उसे सुनना ही लोकतंत्र की असली परीक्षा है।









