दिल्ली की सर्द शाम में जब सोनिया गांधी ने नेहरू सेंटर इंडिया के मंच से बोलना शुरू किया, तो यह केवल एक राजनीतिक बयान नहीं था—यह उस विचार की रक्षा का घोष था जिसे जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत की आत्मा के रूप में गढ़ा था। उनकी आवाज़ में संयम था, पर शब्दों में वह धार थी जो बताती है कि यह लड़ाई केवल अतीत की नहीं, बल्कि आने वाले भारत की दिशा तय करने वाली है।
सोनिया गांधी ने साफ कहा कि देश में एक “सुनियोजित और संगठित प्रयास” चल रहा है—नेहरू की विरासत को विकृत करने, उन्हें छोटा दिखाने और इतिहास को नए राजनीतिक आख्यानों के अनुसार ढालने का प्रयास। यह आलोचना नहीं, बल्कि एक “प्रोजेक्ट” है—एक ऐसा प्रोजेक्ट जो भारत की बुनियाद को ही बदल देना चाहता है। उन्होंने कहा कि विश्लेषण स्वागतयोग्य है, पर “दुर्भावनापूर्ण तोड़-मरोड़” किसी भी लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती।
उनके शब्दों में एक चेतावनी थी—और एक चुनौती भी।
उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल नेहरू की स्मृति की रक्षा की नहीं, बल्कि भारत के मूल्यों, उसकी संवैधानिक आत्मा और उसकी ऐतिहासिक चेतना की रक्षा की है। “हम इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी लड़ रहे हैं,” उन्होंने कहा—और यह वाक्य उस पूरे भाषण का नैतिक केंद्र बन गया।
सोनिया गांधी ने आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ दल का उद्देश्य केवल नेहरू को इतिहास से मिटाना नहीं, बल्कि उन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नींवों को ध्वस्त करना है जिन पर आधुनिक भारत खड़ा है। उनके अनुसार यह प्रयास उस विचारधारा से प्रेरित है जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान नहीं था, जिसने संविधान का विरोध किया, और जिसने कभी नफरत का वह वातावरण पैदा किया था जिसने महात्मा गांधी की हत्या तक का रास्ता बनाया।
उनके शब्दों में इतिहास का दर्द भी था और वर्तमान की बेचैनी भी।
उन्होंने कहा कि नेहरू के विचारों, लेखन और कार्यों के साथ “जानबूझकर शरारत” की जा रही है—और यह केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि उस भारत पर हमला है जो विविधता, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक आदर्शों पर खड़ा है।
यह भाषण केवल कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं था। यह उस व्यापक बहस का हिस्सा था जो आज भारत की आत्मा को लेकर चल रही है—कौन-सा भारत आगे बढ़ेगा? वह भारत जो अपने इतिहास को बहुलता और आधुनिकता के साथ देखता है, या वह भारत जो इतिहास को नए राजनीतिक आख्यानों के अनुसार ढालना चाहता है?
सोनिया गांधी ने कहा कि यह समय पीछे हटने का नहीं, बल्कि खड़े होने का है—व्यक्तिगत रूप से भी और सामूहिक रूप से भी। यह वाक्य आज के राजनीतिक परिदृश्य में एक तरह की नैतिक पुकार की तरह गूंजता है।
उनके अनुसार, यह संघर्ष केवल नेहरू की प्रतिष्ठा का नहीं, बल्कि उस भारत की रक्षा का है जिसे उन्होंने और उनके साथियों ने स्वतंत्रता के बाद आकार दिया था—एक ऐसा भारत जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण, लोकतांत्रिक संस्थाओं और सामाजिक सद्भाव पर आधारित था।
इस पूरे घटनाक्रम को देखें तो यह स्पष्ट है कि नेहरू की विरासत आज केवल इतिहास का विषय नहीं, बल्कि राजनीति का रणक्षेत्र बन चुकी है। एक ओर वे लोग हैं जो नेहरू को आधुनिक भारत का स्थापत्यकार मानते हैं, और दूसरी ओर वे जो उन्हें एक ऐसे आख्यान में बदलना चाहते हैं जो वर्तमान राजनीतिक उद्देश्यों के अनुकूल हो।
सोनिया गांधी का यह भाषण इसी संघर्ष के बीच खड़ा है—एक ऐसा भाषण जो इतिहास की रक्षा, विचारों की रक्षा और राष्ट्र की आत्मा की रक्षा का दावा करता है।
और शायद यही इस क्षण की सबसे बड़ी सच्चाई है—कि भारत का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपने अतीत को कैसे देखता है, और किसे अपना मार्गदर्शक मानता है।







