अमित पांडे: संपादक
सत्ता और सरकार की सीमाएँ धुंधली करते सूक्ष्म चंदा विवाद ने राजनीतिक नैतिकता पर गंभीर सवाल उठाए।
भारतीय राजनीति में सूक्ष्म चंदा (माइक्रो डोनेशन) का विवाद केवल हिसाब-किताब की गड़बड़ी नहीं है, बल्कि यह सत्ता की संरचना और पार्टी–सरकार की सीमाओं के धुंधलाने का बड़ा संकेत है। 2021–22 में भाजपा द्वारा चलाए गए इस अभियान का उद्देश्य आम नागरिकों से पाँच रुपये से लेकर एक हज़ार रुपये तक का योगदान लेना था। यह योगदान किसान सेवा, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, स्वच्छ भारत और स्वास्थ्य–शिक्षा जैसी सरकारी योजनाओं के नाम पर मांगा गया था। स्वाभाविक रूप से जनता ने माना कि यह पैसा भारत सरकार के पास जा रहा है, क्योंकि ये सभी सरकारी योजनाएँ हैं, न कि किसी राजनीतिक दल की योजनाएँ। और जब यह अपील खुद भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा द्वारा की गई, तो पार्टी और सरकार की रेखा और भी धुंधली हो गई।
लेकिन आरटीआई खुलासों ने इस धारणा को पूरी तरह उलट दिया। संबंधित मंत्रालयों ने स्पष्ट कहा कि उन्हें इस अभियान से एक रूपया भी प्राप्त नहीं हुआ और उन्होंने भाजपा को कभी यह अधिकार दिया ही नहीं कि वह उनके योजनाओं के नाम पर पैसा एकत्र करे। योगदानकर्ताओं को जो रसीद मिली, वह “भारतीय जनता पार्टी” के नाम से थी, “भारत सरकार” के नाम से नहीं। यह कोई गलती नहीं थी; यह एक सुविचारित राजनीतिक ढाँचा था, जहाँ सरकारी योजनाओं की भाषा का उपयोग राजनीतिक फंडिंग के लिए किया गया।
यह सवाल स्वाभाविक है कि जब कोई सत्ताधारी दल सरकारी योजनाओं के नाम पर पैसे एकत्र करता है, तो यह परोपकार है या फिर सार्वजनिक सेवा के नाम पर छिपा हुआ राजनीतिक चंदा? भारत के स्वतंत्र इतिहास में इससे पहले कभी किसी सत्तारूढ़ दल ने सरकारी योजनाओं को फंडरेज़िंग के ब्रांड के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। वामपंथी दल लंबे समय से एक-एक रुपये का चंदा इकट्ठा करते रहे हैं, और कन्हैया कुमार ने 2019 में अपने चुनाव अभियान में प्रत्येकक मतदाता से प्रतीकात्मक योगदान मांगा था। मगर उन सभी अभियानों की पहचान स्पष्ट रूप से राजनीतिक थी—लोग जानते थे कि वे पार्टी को दे रहे हैं, सरकार को नहीं।
सूक्ष्म चंदा अभियान इसी साफ़ विभाजन को तोड़ता है। यह एक नया राजनीतिक व्याकरण गढ़ता है, जिसमें नागरिक यह समझ ही नहीं पाता कि वह सरकार को सहयोग कर रहा है या सत्तारूढ़ दल को। जब यह फर्क मिटने लगता है, तो लोकतांत्रिक जवाबदेही भी धुंधली हो जाती है।
इस अभियान में इस्तेमाल हुआ “नमो ऐप” इस विवाद को और गहरा बनाता है। यह ऐप सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री से जुड़ा हुआ प्लेटफॉर्म है, जहाँ सरकारी घोषणाएँ, योजनाएँ, भाषण और राजनीतिक संदेश सभी शामिल होते हैं। जब इसी ऐप पर सरकारी योजनाओं के नाम से लेन-देन हुआ, तो क्या इसका अर्थ यह है कि सरकार को इसकी जानकारी थी? अगर हाँ, तो सुधारात्मक कदम क्यों नहीं उठाए गए? और अगर नहीं, तो शासन व्यवस्था में इतनी बड़ी चूक कैसे हुई? एक ऐसी सरकार, जो उज्ज्वला से लेकर आयुष्मान भारत तक हर योजना का आक्रामक प्रचार करती है, उसे यह अभियान “सरकारी” क्यों नहीं बताया गया? इसे केवल पार्टी द्वारा क्यों प्रचारित किया गया?
यह विरोधाभास अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह एक गहरी राजनीतिक कहानी कहता है—एक ऐसी व्यवस्था की, जहाँ सत्ता के साथ-साथ नरेटिव का नियंत्रण भी जमा लिया जाता है। और जब उसी सत्ता के नाम पर चंदा लिया जाता है, और बाद में मंत्रालय कहते हैं कि उन्हें कोई पैसा नहीं मिला, तो सबसे बड़ा नुकसान जनता के भरोसे का होता है।
यह विवाद एक व्यापक राजनीतिक संस्कृति की ओर भी संकेत करता है, जिसमें राज्य अपनी जिम्मेदारियाँ नागरिकों पर डालता जा रहा है। वरिष्ठ नागरिक रेल छूट हटाने से लेकर विकास और कल्याण के नाम पर लगातार योगदान मांगने तक—सरकार जनता से अपेक्षा बढ़ाती जा रही है, जबकि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से धीरे-धीरे पीछे हटती दिखती है। सार्वजनिक संस्थान CSR, दान और निजी योगदान पर निर्भर होते जा रहे हैं। सवाल यह नहीं कि नागरिक योगदान न दें; सवाल यह है कि क्या राज्य चुपचाप अपनी भूमिका कम कर रहा है?
राजनीतिक गलियारों में यह विवाद एक और गहरी बहस को जन्म देता है—क्या यह चुनाव फंडिंग का नया मॉडल है? क्या यह इलेक्टोरल बॉन्ड की निगरानी को दरकिनार करने का तरीका है? क्या यह जनता की भावनाओं और राष्ट्रवाद की भाषा का उपयोग कर एक व्यापक फंडिंग बेस तैयार करने की रणनीति है? कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया। मंत्रालयों ने दूरी बना ली है, रसीदें सब कुछ कह देती हैं, और आरटीआई जवाब इस पूरे ढांचे की वास्तविकता उजागर करते हैं।
ऐसे समय में जे.पी. नड्डा की स्थिति भी सवालों के घेरे में आती है। वे भाजपा के इतिहास में सबसे लंबे समय तक लगातार अध्यक्ष बने रहने वाले नेता हैं। पार्टी ने अपने ही सिद्धांत—एक व्यक्ति, एक पद—को उनके लिए शिथिल किया। जब संगठन इतना शक्तिशाली हो और चुनावी वर्चस्व इतना व्यापक, तो आखिर क्या आवश्यकता थी कि सरकारी योजनाओं की भाषा में जनता से चंदा मांगा जाए? यह प्रश्न महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के बीच देश को अधिक पारदर्शी फंडिंग व्यवस्था का आश्वासन दिया गया था।
पर यह अभियान पारदर्शिता के बिल्कुल उलट था—सरकारी नाम, पार्टी की रसीद, और मंत्रालयों की अनभिज्ञता। यदि यह सब बिना किसी कठिनाई के हुआ, और किसी ने सवाल नहीं उठाया, तो क्या इसका अर्थ यह है कि पार्टी और सरकार की रेखा एक ही दिशा में बह रही थी? और यदि हाँ, तो “पार्टी विद ए डिफरेंस” का वह दावा कहाँ रह जाता है?
सूक्ष्म चंदा विवाद पाँच या एक हज़ार रुपये का नहीं है। यह राजनीतिक नैतिकता का प्रश्न है। यह प्रश्न है कि क्या सत्ता में बैठा दल शासन की भाषा का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर सकता है। यह प्रश्न है कि क्या पारदर्शिता केवल तब तक आवश्यक है, जब तक सत्ता की पकड़ कमजोर हो। और यह प्रश्न है कि क्या भारत एक ऐसे राजनीतिक दौर में प्रवेश कर रहा है, जहाँ पार्टी और राज्य की सीमाएँ रेखाओं की तरह नहीं, बल्कि परछाइयों की तरह अस्थिर हो गई हैं। जब भरोसा कमजोर पड़ता है, तो लोकतंत्र भी कमजोर पड़ता है।







