अमित पांडे: संपादक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिल्ली के कैथेड्रल चर्च ऑफ़ द रिडेम्प्शन में क्रिसमस प्रार्थना सभा में शामिल होना निश्चय ही एक प्रतीकात्मक कदम है, लेकिन यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या मात्र ऐसी मौजूदगी से ईसाई समुदाय के खिलाफ बढ़ती हिंसा और नफरत पर अंकुश लग सकेगा। प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया पर “क्रिसमस नई आशा, गर्मजोशी और साझा प्रतिबद्धता लेकर आए” जैसे शब्द लिखे, परंतु हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं पर कोई स्पष्ट निंदा नहीं की। यही मौन आज सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है।
पिछले दो वर्षों के आंकड़े इस चिंता को और गहरा करते हैं। यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम ने 2024 में 834 और नवंबर 2025 तक 706 घटनाओं को दर्ज किया है, जिनमें प्रार्थना सभाओं पर हमले, सजावटों की तोड़फोड़, कारोल गायकों पर हमले और कब्रिस्तानों में दफनाने से रोकने जैसी घटनाएँ शामिल हैं। उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ सबसे अधिक प्रभावित राज्य बताए गए हैं। नागरिक अधिकार संगठनों की रिपोर्टें बताती हैं कि कई बार पुलिस प्रशासन स्वयं हिंदुत्ववादी समूहों के साथ खड़ा दिखाई देता है, जिससे पीड़ित समुदाय का विश्वास और कमजोर होता है।
क्रिसमस से ठीक पहले असम के नलबाड़ी जिले में बजरंग दल से जुड़े युवाओं ने स्कूल में घुसकर सजावटें जला दीं और “जय हिंदू राष्ट्र” के नारे लगाए। मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक दृष्टिहीन महिला को क्रिसमस कार्यक्रम में भाजपा पदाधिकारी द्वारा अपमानित किया गया। छत्तीसगढ़ में ‘सर्व हिंदू समाज’ ने क्रिसमस ईव पर बंद का आह्वान किया और रायपुर के मॉल में सजावटें तोड़ी गईं। दिल्ली के लाजपत नगर में सांता टोपी पहने बच्चों और महिलाओं को बाजार से भगाया गया। ओडिशा में भी सांता कैप बेचने वाले ठेले वालों को हटाया गया। इन घटनाओं की श्रृंखला यह स्पष्ट करती है कि यह केवल स्थानीय असामाजिक तत्वों की करतूत नहीं बल्कि एक व्यापक प्रवृत्ति है।
ईसाई संगठनों ने गृहमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर सुरक्षा की मांग की है। कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ने कहा कि यह घटनाएँ भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी को कमजोर करती हैं। ‘सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस’ की रिपोर्ट ‘नो रेस्ट, ईवन इन डेथ’ ने छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में कब्रिस्तानों से शवों को जबरन निकालने और दफनाने से रोकने की घटनाओं को दर्ज किया है। यह स्थिति केवल धार्मिक स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि मानव गरिमा के मूल अधिकार पर भी सीधा प्रहार है।
राजनीतिक प्रतिक्रिया भी इस पर तीखी रही। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने केरल में बच्चों के कारोल समूह पर हमले को “धर्मनिरपेक्ष परंपरा पर हमला” बताया। कांग्रेस महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा की घटनाओं को भाजपा की अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता का प्रमाण कहा। तृणमूल कांग्रेस ने बंगाल की शांतिपूर्ण क्रिसमस तस्वीरों को भाजपा शासित राज्यों की हिंसक घटनाओं से तुलना करते हुए कहा कि “जहाँ उत्सव है वहाँ सद्भाव है, और जहाँ नफरत है वहाँ सत्ता की मौन सहमति।”
प्रधानमंत्री की प्रतीकात्मक उपस्थिति से यह संदेश तो जाता है कि सरकार ईसाई परंपराओं को मान्यता देती है, लेकिन जब तक हिंसा पर स्पष्ट निंदा और ठोस कार्रवाई नहीं होती, तब तक यह प्रतीकवाद खोखला प्रतीत होता है। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत में किसी भी समुदाय को भय और असुरक्षा में त्योहार मनाना पड़े, यह संविधान की आत्मा के विपरीत है। आंकड़े बताते हैं कि हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं और प्रशासनिक निष्क्रियता या मौन इन्हें और बढ़ावा देता है।
संपादकीय दृष्टि से यह कहना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री का कर्तव्य केवल उत्सवों में शामिल होना नहीं बल्कि उन शक्तियों को रोकना है जो भारत की बहुलतावादी पहचान को कमजोर कर रही हैं। यदि सरकार वास्तव में ईसाई समुदाय के प्रति सद्भाव का संदेश देना चाहती है तो उसे हिंसा करने वालों पर कठोर कार्रवाई करनी होगी, पुलिस प्रशासन को जवाबदेह बनाना होगा और संविधान की धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी को व्यवहार में लागू करना होगा। अन्यथा, प्रतीकात्मक उपस्थिति और शुभकामनाएँ केवल राजनीतिक दिखावा बनकर रह जाएँगी और अल्पसंख्यक समुदायों का विश्वास और अधिक टूटेगा।
भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, अपने त्योहार को बिना भय और उत्पीड़न के मना सके। क्रिसमस का संदेश शांति और प्रेम का है, और यदि सत्ता इस संदेश को वास्तविकता में बदलने में असफल रहती है, तो यह केवल उत्सव की रोशनी में छिपी अंधकारमय सच्चाई को उजागर करेगा।






