लेखक: अमित पांडे — संपादक कड़वा सत्य
भारत की आर्थिक प्रगति की सराहना वैश्विक मंच पर खूब होती है, लेकिन इस चमक के पीछे एक कड़वी सच्चाई छिपी है—बड़े आर्थिक अपराधियों का देश से पलायन और भारतीय कानून की पकड़ से उनका बच निकलना। साल 2015 से 2019 के बीच ही कम से कम 38 बड़े आर्थिक अपराधी देश छोड़कर भाग गए। इनमें विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी जैसे नाम शामिल हैं, जिन्होंने हजारों करोड़ का बैंक कर्ज धोखाधड़ी से लिया और फिर विदेशों में शरण ली। आज तक ये आरोपी न तो भारत वापस लाए जा सके हैं और न ही न्याय के कटघरे में खड़े हो सके हैं। यह केवल वित्तीय क्षति नहीं है, बल्कि देश की न्यायिक व्यवस्था और शासन की विश्वसनीयता पर भी गहरा आघात है।
सरकार ने फ्यूजिटिव इकोनॉमिक ऑफेंडर्स एक्ट (2018), मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम कानून (PMLA) में संशोधन, और हाल ही में भारतीय दंड संहिता की जगह नया ‘भारतीय न्याय संहिता (BNS)’ लागू कर जैसे कई बड़े कदम उठाए हैं। लेकिन इन कानूनों के बावजूद नतीजे बहुत सीमित रहे हैं। एजेंसियां छापे डालती हैं, संपत्तियां जब्त की जाती हैं, लेकिन सजा या दोष सिद्धि के मामले बहुत कम हैं। सवाल उठता है—क्या भारत की कानून व्यवस्था सिर्फ गरीबों और कमजोरों के लिए है? क्या रसूखदार और अमीर अपराधियों के लिए कानून की धार भोथरी हो जाती है?
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि जनता से वसूले गए टैक्स के पैसे से बैंकों को दोबारा खड़ा किया गया, लेकिन जिन लोगों ने इन बैंकों को चूना लगाया, उनके खिलाफ अब तक ठोस कार्रवाई नहीं हुई। सरकार एक तरफ पुरानी पेंशन योजना को आर्थिक बोझ बताकर खारिज करती है, वहीं दूसरी ओर हजारों करोड़ के बैंक घोटालों में सार्वजनिक पैसे की बर्बादी को नजरअंदाज कर देती है। ऐसे में आम नागरिक के मन में स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है—क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं?
इन घोटालों की राशि 50,000 करोड़ से भी ज्यादा आंकी गई है। यह वही पैसा है जिससे देश के स्कूल, अस्पताल, सड़कें और कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती थीं। प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने दावा किया है कि उसने 22,000 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की है, लेकिन यह सिर्फ कागजी आंकड़े हैं। असली वसूली न के बराबर है। जब्त की गई संपत्तियों की कानूनी लड़ाई, मूल्यह्रास और स्वामित्व विवाद इनकी वसूली को और जटिल बना देते हैं।
इससे भी अधिक नुकसानदेह है वह संदेश जो इन घटनाओं से समाज में जाता है—अगर आप अमीर हैं, राजनीतिक रूप से जुड़ाव रखते हैं और चालाकी से चलते हैं, तो आप सिस्टम को धोखा देकर भी आराम से विदेश में रह सकते हैं, और भारतीय एजेंसियां सिर्फ कागजी कार्रवाई तक सीमित रह जाएंगी।
RBI की पूर्व अधिकारी और अर्थशास्त्री डॉ. रेनू कोहली के अनुसार, “इन अपराधियों की आज़ादी सिर्फ धन की हानि नहीं है, बल्कि इससे संस्थागत विश्वसनीयता को ठेस पहुंचती है और भविष्य के अपराधियों को प्रेरणा मिलती है।” इस तरह की घटनाएं निवेशकों के आत्मविश्वास को भी चोट पहुंचाती हैं और बैंक लोन देने में ज्यादा सतर्क हो जाते हैं, जिससे आर्थिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ता है।
बैंकों का NPA (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) 2018 में 10 लाख करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया था। इसकी भरपाई टैक्सपेयर्स के पैसे से की गई—यानी आम जनता ने अमीर अपराधियों की गलती की सजा भुगती।
कानून बनाने के मोर्चे पर भले सरकार ने सक्रियता दिखाई हो, लेकिन कार्रवाई के स्तर पर तस्वीर बेहद निराशाजनक है। विजय माल्या को ब्रिटेन में कानूनी चुनौती दी गई लेकिन वह अब तक भारत नहीं लाए जा सके। नीरव मोदी ने मानसिक स्वास्थ्य और भारतीय जेलों की स्थिति का हवाला देकर अपने प्रत्यर्पण को रोके रखा। मेहुल चोकसी एंटीगुआ की नागरिकता लेकर वहां की कानूनी सुरक्षा का लाभ उठा रहा है। इन मामलों में कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी, खर्चीली और जटिल होती है कि जनता को लगता है जैसे कानून सिर्फ कमजोरों के लिए है।
2019 से 2023 तक प्रवर्तन निदेशालय ने PMLA के तहत 900 से ज्यादा केस दर्ज किए, लेकिन इनमें सजा सिर्फ 4.6% मामलों में ही हो सकी। यानी हर 100 मामलों में से 95 अपराधी बच निकलते हैं। इससे यह सवाल उठता है—क्या ये कानून केवल राजनीतिक प्रतिशोध के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं?
वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है, “कानून को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसकी जरूरत एक स्केलपल की तरह थी।” विपक्षी नेताओं के खिलाफ त्वरित कार्रवाई होती है, लेकिन सत्ता से जुड़े लोगों पर जांच की रफ्तार धीमी पड़ जाती है। यह धारणा, चाहे पूरी तरह सच न भी हो, फिर भी संस्थाओं की साख को नुकसान पहुंचाती है।
इस पूरे परिदृश्य में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव स्पष्ट दिखता है। भारत की न्याय प्रणाली पहले से ही बोझिल है—5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। जांच एजेंसियों में समन्वय की कमी, आपसी प्रतिस्पर्धा और राजनीतिक दबाव जांच की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते हैं।
बीजेपी ने 2014 में “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा” का नारा दिया था। एक दशक बाद, जब आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं में भ्रष्टाचार के आरोप सामने आते हैं और OPS को ‘घाटा’ बताकर टाल दिया जाता है, तब जनता सवाल पूछती है—अगर पेंशन भारी है तो घोटाले क्यों हल्के हैं?
इससे सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक तंत्र की साख पर असर पड़ता है। जब जनता को लगता है कि उसके टैक्स का पैसा लुट रहा है और अपराधियों को सजा नहीं मिल रही, तो लोकतंत्र पर से विश्वास उठने लगता है।
वैश्विक स्तर पर भी इसका असर होता है। निवेशक ऐसे बाजारों से दूरी बनाते हैं जहां कानून का शासन कमजोर हो और धोखाधड़ी पर सख्त कार्रवाई नहीं होती।
यह सिर्फ कानूनी या आर्थिक संकट नहीं है—यह नैतिक और राजनीतिक संकट भी है। जब तक सरकार निष्पक्ष, पारदर्शी और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित नहीं करती, तब तक ये कानून सिर्फ कागजों तक सीमित रहेंगे।
सवाल अब सीधा है—कौन इन देरी से लाभ उठा रहा है? और सबसे अहम, जनता को न्याय कब मिलेगा?
जब तक इन अपराधियों को कानूनी सजा नहीं दी जाती और लूटी गई संपत्ति की भरपाई नहीं होती, तब तक भारत की लड़ाई अधूरी रहेगी—एक ऐसी जंग जो देश की अर्थव्यवस्था, संस्थानों और न्याय की समानता की बुनियाद को कमजोर करती रहेगी।