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बचपन: सिर्फ अंकों से कहीं ज़्यादा

आज हमारे समाज के हर कोने में एक खतरनाक प्रवृत्ति सामान्य होती जा रही है — बच्चों की काबिलियत को उनके अंकों से मापना।

News Desk by News Desk
May 15, 2025
in देश
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बचपन: सिर्फ अंकों से कहीं ज़्यादा
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अमित पांडेय

आज हमारे समाज के हर कोने में एक खतरनाक प्रवृत्ति सामान्य होती जा रही है — बच्चों की काबिलियत को उनके अंकों से मापना। रिज़ल्ट का मौसम अब आत्ममंथन का नहीं, बल्कि व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर जश्न मनाने का समय बन गया है: “95% और उससे ऊपर वाले छात्रों के नाम भेजें,” “90% से अधिक अंक पाने वाले छात्रों का सम्मान किया जाएगा।” स्कूल, कोचिंग संस्थान और यहां तक कि सामाजिक संगठन भी इस दौड़ में कूद पड़ते हैं, टॉपर्स को बैनरों, प्रमाणपत्रों और मालाओं से सजाते हैं। परिश्रम की सराहना ज़रूरी है, लेकिन यह चयनात्मक प्रशंसा एक ग़लत और नुकसानदेह संदेश देती है: कि केवल चंद टॉपर्स ही सराहना के लायक हैं, कि मूल्यांकन केवल प्रतिशत से होता है, और शिक्षा का उद्देश्य केवल अंकों की उत्कृष्टता है।
पर ज़रा ठहरकर सोचिए — उस बच्चे का क्या जो 70% लाया लेकिन भारी निजी संघर्षों को पार कर के पहुँचा? उस बच्चे का क्या जो 60% लाया लेकिन एक बेहतरीन कलाकार है या दयालु स्वयंसेवक? हम ऐसे बच्चों को क्या संदेश दे रहे हैं — कि वे अदृश्य हैं? अयोग्य हैं? कि जब तक वे अपने प्रयासों को 95% में नहीं बदलते, तब तक उनकी मेहनत, उनका विकास और उनकी इंसानियत कोई मायने नहीं रखती?
अंकों की यह अंधभक्ति केवल भ्रामक नहीं, खतरनाक है। भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2023 में 13,000 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की — यानी हर घंटे एक से अधिक छात्र। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) लगातार चेतावनी दे रहा है कि शैक्षणिक तनाव, अवास्तविक अपेक्षाएं, और भावनात्मक सहयोग की कमी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य संकट के मुख्य कारण हैं। पिछले एक दशक में छात्र आत्महत्याओं की दर 60% से अधिक बढ़ गई है — यह चौंकाने वाला आंकड़ा किसी भी समाज को झकझोर देने के लिए पर्याप्त है।
बच्चों के साथ काम करने वाले मनोवैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं। वे बढ़ते हुए चिंता, अवसाद, असफलता का भय, और पहचान संकट की बात कर रहे हैं। कई छात्र कहते हैं कि वे “परफॉर्मेंस मशीन” बन चुके हैं — उनसे केवल परिणाम की अपेक्षा की जाती है, न कि खोज, अनुभव या विकास की। सीखने की खुशी अब प्रतिस्पर्धा के डर से बदल गई है। यह शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा के उद्देश्य का विकृतिकरण है।
हमें समझना होगा कि बचपन जीवन की तैयारी नहीं है — वह स्वयं जीवन है। एक इंसान के प्रारंभिक वर्ष केवल स्कोरबोर्ड नहीं हैं। ये साल खोज, रचनात्मकता, सहानुभूति, अपनी ताकत और कमज़ोरियों को समझने, और दूसरों के साथ जीना सीखने के लिए होते हैं। जब हम बच्चों को सिर्फ अंकों में सीमित कर देते हैं, तो हम उनकी सम्पूर्ण मानवता को छीन लेते हैं और समाज को प्रतिस्पर्धा और तुलना की फैक्ट्री बना देते हैं।
विडंबना यह है कि हमारे पूर्वज और पारंपरिक शिक्षा प्रणालियाँ कभी शिक्षा को इतने सख्त, संख्यात्मक मानकों से नहीं मापती थीं। गुरुकुल व्यवस्था मूल्यों, अनुशासन, सेवा, आत्मचिंतन और सामाजिक जिम्मेदारी पर आधारित थी। आज़ादी के शुरुआती वर्षों में भी 50% या 60% अंक पाना सम्मानजनक माना जाता था। माता-पिता चरित्र और सहनशीलता के निर्माण पर ध्यान देते थे। लेकिन समय के साथ, जनसंख्या वृद्धि, प्रतियोगिता, कोचिंग उद्योग के विस्तार और सोशल मीडिया की दृश्यता के कारण हमने लक्ष्य बदल दिया। अब 90% सामान्य माना जाता है और 95%+ ही मायने रखता है। जो कभी प्रोत्साहन था, वह अब बहिष्करण बन चुका है।
हमें संस्थाओं और अधिकारियों की भूमिका पर भी प्रश्न उठाना चाहिए, जो इन अस्वस्थ मानदंडों को बढ़ावा देते हैं। क्यों स्कूल उन बच्चों को समान मंच नहीं देते जो संगीत, नाटक, वाद-विवाद, विज्ञान परियोजनाओं या खेलों में उत्कृष्ट हैं? क्यों केवल शैक्षणिक टॉपर्स को सार्वजनिक रूप से सराहा जाता है? क्यों पेरेंट-टीचर मीटिंग अब भी रैंकिंग तुलना से भरी होती हैं, न कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता, दया या सहयोग जैसे विषयों की चर्चा से? क्यों कोचिंग सेंटरों को विशाल होर्डिंग्स में टॉपर्स का विज्ञापन करने की अनुमति है, जो यह भ्रम फैलाते हैं कि केवल अंक ही सफलता की मुद्रा हैं?
सरकार और शैक्षिक बोर्डों को अब निर्णायक कदम उठाने चाहिए। कोचिंग केंद्रों के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। स्कूलों को यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे विविध उपलब्धियों को प्रदर्शित करें — केवल अकादमिक नहीं। पुरस्कारों और पहचान कार्यक्रमों में नेतृत्व, सामुदायिक सेवा, रचनात्मकता और सहानुभूति को भी शामिल किया जाना चाहिए। जो छात्र हर सप्ताह पशु आश्रय में स्वयंसेवा करता है, उसे उतना ही मूल्यवान माना जाना चाहिए जितना कि 98% लाने वाले को। क्यों? क्योंकि हमें एक ऐसा समाज चाहिए जो दयालु, सक्षम और संतुलित लोगों से बना हो — न कि केवल टॉपर्स से।
नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने इस दिशा में कुछ अहम सुझाव दिए हैं — समग्र विकास, रटंत प्रणाली में कमी, और जीवन कौशल को शामिल करने की बात कही गई है। लेकिन इसका कार्यान्वयन अधूरा है और सामाजिक सोच अब भी पुरानी है। यहां माता-पिता, शिक्षक, सामुदायिक नेता और मीडिया की भूमिका निर्णायक हो जाती है। हमें यह सोच बदलनी होगी — “तूने कितने अंक लाए?” से “तूने क्या सीखा?” और “तू किस इंसान में बदल रहा है?” तक। तभी हम ऐसे नागरिक तैयार कर पाएँगे जो भावनात्मक रूप से मजबूत, सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और आत्म-सचेत हों।
माता-पिता को खासतौर पर अपनी भूमिका पर दोबारा विचार करना होगा। बच्चों की दूसरों से तुलना करना, अंकों के लिए शर्मिंदा करना, और अपनी अधूरी आकांक्षाएँ उन पर थोपना — यह पालन-पोषण नहीं, मानसिक हिंसा है। हर बच्चा अपनी अनूठी गति, अपनी अलग बुद्धि के साथ आता है। कोई दृश्यात्मक सोच में माहिर होता है, कोई सहानुभूति में, कोई खोजकर्ता होता है, कोई विश्लेषक, कोई धीरे-धीरे खिलता है। अगर हम सभी से एक जैसी फूल बनने की अपेक्षा करेंगे, तो हम बग़ीचे को उसके खिलने से पहले ही नष्ट कर देंगे।
समाज को स्कोरबोर्ड नहीं, सहयोगी तंत्र बनना चाहिए। हमें बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि असफलता अंत नहीं है, कि दयालुता एक ताकत है, कि सहयोग प्रतिस्पर्धा से कहीं अधिक शक्तिशाली है। हमें उन्हें दिखाना होगा कि साहस 100% लाना नहीं, बल्कि 50% लाने के बाद भी फिर से खड़ा होना है। हमें ईमानदारी, प्रयास और विकास को परिपूर्णता से ज़्यादा महत्व देना होगा।
यह भी ज़रूरी है कि अंकों को पहचान से अलग किया जाए। किसी बच्चे को “वह जो 94% लाया” कहकर पहचानना अनुचित और सीमित है। इसके बजाय पूछिए: “तुझे किस चीज़ में रुचि है?” “तू क्या करना पसंद करता है?” “हम कैसे तुझे खुद का सर्वश्रेष्ठ संस्करण बनने में मदद कर सकते हैं?” ऐसे सवाल कल्पना, आत्मविश्वास और सच्चे आत्म-सम्मान को जन्म देते हैं।
एक स्वस्थ और मानवीय समाज थके हुए बच्चों की बलि पर नहीं बन सकता। हमें कलाकारों, देखभालकर्ताओं, इंजीनियरों, कवियों, वैज्ञानिकों और कहानीकारों की ज़रूरत है — केवल टॉपर्स की नहीं। अगर हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी करुणा और नवाचार के साथ नेतृत्व करे, तो हमें उन्हें एक-दूसरे को पछाड़ने की मशीन की तरह नहीं, बल्कि सपनों, संदेहों और अनमाप्य संभावनाओं वाले इंसानों की तरह पालना होगा।
समय आ गया है कि हम हस्तक्षेप करें। हम बदलाव लाएँ। हम ऐसा संसार बनाएँ जहाँ हर बच्चा महत्वपूर्ण हो — अंकों के लिए नहीं, बल्कि उसकी मानवता के लिए।

(लेखक, समाचीन विषयों के गहन अध्येता, युवा चिंतक व राष्ट्रीय-आंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं, रणनीति, रक्षा और तकनीकी नीतियों पर विशेष पकड़ रखते हैं।)

Tags: NEP 2020 आलोचनाअंक आधारित मूल्यांकनछात्र आत्महत्या आंकड़ेटॉपर कल्चर का खतरानंबरों की दौड़बच्चों पर पढ़ाई का दबावभारतीय शिक्षा प्रणालीशिक्षा में बदलाव की ज़रूरतस्कूली जीवन और तनावस्टूडेंट मानसिक स्वास्थ्य
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