पिछले एक दशक में भारत की विदेश नीति में एक अलग प्रवृत्ति देखने को मिली—जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत कूटनीति को केंद्र में रखा गया। अमेरिका के राष्ट्रपतियों—बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप को “मित्र” कहकर संबोधित करना और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गले मिलना, मंच साझा करना—इन घटनाओं ने भारत की विदेश नीति को नई दिशा देने का दावा किया।
लेकिन हालिया घटनाक्रमों ने इन प्रयासों की सीमाएं उजागर कर दी हैं। अमेरिका द्वारा भारतीय वस्तुओं पर 25% टैरिफ लगाना और अतिरिक्त सर्चार्ज थोपना एक बड़ा झटका साबित हुआ। भारत की ओर से सात दौर की बातचीत के बावजूद समुद्री खाद्य, वस्त्र और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे प्रमुख निर्यात क्षेत्रों को कोई छूट नहीं मिली।
भारतीय संसद में विपक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया दी। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा, “विदेश नीति सेल्फी नहीं, बल्कि ठोस रणनीति होती है।” भाजपा के अंदर से भी कुछ आलोचनात्मक स्वर उठे, जिनका मानना था कि अत्यधिक ‘व्यक्तिकृत’ कूटनीति ने संस्थागत निरंतरता को नुकसान पहुंचाया है।
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने कहा, “भारत ने रणनीतिक स्वायत्तता से रणनीतिक अस्पष्टता की ओर कदम बढ़ाया है।”
बिगड़ते संबंध और चीन की बढ़ती पकड़
रूस के साथ ऐतिहासिक रिश्ते कमजोर हो चुके हैं। कभी भिलाई स्टील प्लांट (1955), आईआईटी बॉम्बे (1958), और आर्यभट्ट उपग्रह (1975) जैसे सहयोग आज सिर्फ हथियार और तेल व्यापार तक सीमित हो गए हैं। अब रूस से अधिक महंगे दामों पर पश्चिमी हथियार खरीदे जा रहे हैं, जिनमें तकनीकी स्थानांतरण (Technology Transfer) बेहद कम होता है।
उधर Reliance की जामनगर रिफाइनरी ने ही 2023 में ₹66,000 करोड़ से अधिक का सस्ता रूसी कच्चा तेल प्रोसेस किया, जिससे लाभ तो निजी कंपनियों को हुआ, लेकिन भारत की स्थिति रूस-यूक्रेन युद्ध पर अस्पष्ट बनी रही।
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भी भारत की स्थिति अस्थिर दिखती है। क्वाड (QUAD) की सक्रियता के बावजूद भारत ने अमेरिका के साथ सैन्य साझेदारी को सीमित रखा है। ‘बहु-संरेखण’ (multi-alignment) की नीति अब गैर-संरेखण की परछाईं मात्र बनकर रह गई है, जिसके पीछे कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है।
क्षेत्रीय स्तर पर भी भारत की भागीदारी कमजोर हुई है। बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी जल बंटवारा समझौता 2011 से लटका हुआ है, जिस पर प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 2024 में खुली नाराजगी जताई। श्रीलंका ने अपने आर्थिक संकट के दौरान भारत की निष्क्रियता के चलते चीन और IMF से मदद ली, और नेपाल तथा भूटान ने भी भारत की संचारहीनता पर असंतोष जताया।
BRICS और SAARC जैसे मंचों पर भी भारत का प्रभाव घटा है। जहां पहले भारत नेतृत्व की भूमिका निभाता था, अब चीन की आर्थिक ताकत ने इन मंचों पर उसे हावी बना दिया है।
भारत की विदेश नीति में कॉरपोरेट हितों का बढ़ता प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है। ऊर्जा के क्षेत्र में रूस से सस्ता तेल खरीदने से आम जनता को सीधे लाभ कम मिला, जबकि निजी रिफाइनरियों और कंपनियों ने भारी मुनाफा कमाया। अगर अमेरिका कभी ऊर्जा व्यापार पर प्रतिबंध लगाता है, तो Ambani जैसी बड़ी कंपनियां संकट में आ सकती हैं, लेकिन नीति की दिशा का भार आम नागरिक उठाएंगे।
दूसरी ओर, भारतीय बैंकों ने पिछले एक दशक में ₹16.35 लाख करोड़ के कॉरपोरेट लोन राइट-ऑफ किए हैं, जिनका सीधा लाभ बड़े उधारकर्ताओं को मिला, जबकि किसान और छोटे उद्योगों को राहत बेहद सीमित रही।
‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजनाएं भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाईं। उदाहरण के लिए, HAL का ‘तेजस’ लड़ाकू विमान आज तक कोई बड़ा विदेशी खरीदार नहीं जुटा पाया। इसके उलट भारत अभी भी दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा आयातक बना हुआ है।
चीन के साथ भी सीमा विवादों के बावजूद व्यापार लगातार बढ़ता गया। 2024 में चीन से भारत के 70% इलेक्ट्रॉनिक्स आयात हुए। इससे साफ है कि रणनीति और वास्तविकता में बड़ा अंतर है।
निष्कर्ष: अब जरूरी है नीति में स्पष्टता और संस्थागत ताकत
भारत की विदेश नीति ने दिखावटी प्रदर्शन तो खूब किया, लेकिन परिणाम सीमित रहे। रणनीतिक साझेदार अनिश्चित हो गए, पड़ोसियों का भरोसा डगमगा गया, और वैश्विक मंचों पर भारत की आवाज कमजोर पड़ी।
आने वाले समय में भारत को तीन बड़े कदम उठाने होंगे:
- पुराने सहयोगियों (जैसे रूस, मध्य एशिया) के साथ रिश्तों की पुनर्बहाली।
- पड़ोसियों के साथ विश्वास आधारित नीति—SAARC और ASEAN के माध्यम से।
- विदेश नीति को केवल व्यक्तित्व नहीं, संस्थाओं और स्पष्ट सिद्धांतों से संचालित करना।
‘मैत्री’ सिर्फ तस्वीरों से नहीं बनती—बल्कि समान हितों की स्थायी अभिव्यक्ति से बनती है। अगर भारत को वैश्विक मंच पर नेतृत्व करना है, तो उसे अब सिर्फ जोर से नहीं, सोच-समझ कर और स्पष्ट रणनीति के साथ बोलना होगा।