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Home संपादकीय

लाल झंडे की वापसी: एक नई शुरुआत की दस्तक

News Desk by News Desk
July 9, 2025
in संपादकीय
लाल झंडे की वापसी: एक नई शुरुआत की दस्तक
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9 जुलाई 2025 को भारत की सड़कों पर जो दृश्य उभरा, वह सिर्फ़ एक देशव्यापी हड़ताल नहीं था। यह इतिहास की दस्तक थी—एक ऐसी वापसी जिसमें मज़दूरों की चुप्पी ने विद्रोह का रूप ले लिया। किसान, संविदाकर्मी, स्कीम कर्मचारी, रिटायर्ड बुज़ुर्ग, बेरोज़गार युवा, और लाखों ऐसे लोग जो सरकारी काग़ज़ों में या तो ‘उद्यमी’ बन चुके हैं या ‘लाभार्थी’, अब एक बार फिर ‘नागरिक’ की तरह सामने आए। और उनके हाथ में एक ही झंडा था—लाल।

कभी बंगाल, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, ओडिशा जैसे प्रदेशों की पहचान रहा लाल झंडा, उदारीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में हाशिए पर धकेल दिया गया था। अब जब हर नीतिगत चर्चा स्टार्टअप, एआई, और टैलीग्राम ऐप की भाषा में होने लगी थी, तब इस झंडे का लौट आना ख़ुद में एक सियासी और सामाजिक सवाल बन गया। वह झंडा जो कभी मिलों और खदानों में लड़ाई का प्रतीक था, अब शिक्षकों, स्वास्थ कर्मियों और छोटे दुकानदारों के कंधों पर लहरा रहा था।

ये बंद, जिसमें 25 करोड़ से ज़्यादा लोगों की भागीदारी दर्ज हुई, सिर्फ़ श्रम संहिताओं को वापस लेने की माँग तक सीमित नहीं था। यह उस सामाजिक अनुबंध का उल्लंघन था, जिसमें कहा गया था कि मेहनत के बदले इंसान को सिर्फ़ ज़िंदा रहने का हक़ नहीं, गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी है। 17 प्रमुख माँगों में पुरानी पेंशन योजना की बहाली, ₹26,000 न्यूनतम वेतन, फसल पर क़ानूनी एमएसपी, सभी स्कीम कर्मियों को स्थायी कर्मचारी का दर्जा, और सार्वजनिक उपक्रमों की निजीकरण से रक्षा शामिल थीं।

आज एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता 3,500-5,000 रुपए में महीना निकालती है, जबकि उसी गाँव में बिजली बिल 800-1,000 रुपए आता है। उत्तर प्रदेश के पीआरडी शिक्षक ₹20,000 मासिक पर बिना अवकाश, बिना भत्ते काम करते हैं। और अगर एक दिन छुट्टी ली तो ₹1,000 वेतन से काट लिया जाता है। मिड-डे मील की रसोइया, कोविड वार्ड में काम करने वाली आशा बहनें, या ग्रामीण डाक सेवक—सभी ने आज गवाही दी कि काम है, इज़्ज़त नहीं।

बिहार, बंगाल, झारखंड, ओडिशा, त्रिपुरा और तमिलनाडु समेत लगभग दो दर्जन राज्यों में सरकारी कार्यालयों, कोयला खानों, परिवहन सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में कामकाज पूरी तरह ठप रहा। पटना, धनबाद, भुवनेश्वर, कोयम्बटूर, त्रिपुरा के ग्रामीण इलाकों और कोच्चि जैसे शहरों में सड़कें आवाज़ से नहीं, सन्नाटे से भरी थीं। लेकिन वह सन्नाटा विरोध का था, हार का नहीं।

इन मजदूरों का ग़ुस्सा केवल सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं था, बल्कि उस मनोवृत्ति पर भी था जिसमें उनके दर्द को ‘डेटा’ में बदला गया। जन-धन खाते खोलने का चित्रण किया गया, पर क्रेडिट नहीं मिला। मुफ्त राशन के ऐलान हुए, पर नौकरियाँ कम होती चली गईं। बिजली को ‘स्मार्ट’ बनाया गया, पर बिल सात से नौ रुपये प्रति यूनिट तक पहुँच गया। और उस बिजली कंपनी के मालिक का नाम फोर्ब्स की अरबपति सूची में 20वें पायदान पर दर्ज हो गया, जबकि उसके मज़दूर न्यूनतम वेतन के लिए सड़कों पर हैं।

जब प्रधानमंत्री ने वैश्विक निवेशक सम्मेलन में भारत के “ट्रिलियन डॉलर दशक” की घोषणा की, उसी समय देश के आधे श्रमिक वर्ग को ₹26,000 की मासिक न्यूनतम मज़दूरी सपना लग रहा था। यह वह विरोधाभास है जो भारत को आर्थिक आंकड़ों में अमीर और सामाजिक व्यवहार में ग़रीब बनाता है।

मार्क्स ने कहा था—”श्रम ही एकमात्र ऐसा उत्पाद है जो मूल्य उत्पन्न करता है, लेकिन ख़ुद कम से कम मूल्य पर खरीदा जाता है।” यही कथन भारत की हकीकत बन गया है। अगस्त मुलर ने चेताया था कि “जब राज्य जनकल्याण के नाम पर पीछे हटता है, तो नागरिक व्यवस्था के केंद्र से भी बाहर हो जाते हैं।” और यही हो रहा है—सब कुछ निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, लेकिन जवाबदेही न किसी सरकार के पास है, न किसी पूंजीपति के पास।

इस हड़ताल में शामिल अधिकतर वो लोग थे जो पहले राम मंदिर की आस्था, डिजिटल इंडिया के वादों, और जनकल्याण योजनाओं के भ्रम में उलझे थे। उन्हें लगा था कि शायद अब बदलाव आएगा। लेकिन जब पांच किलो गेहूं और एक गैस सिलेंडर ही उपलब्धि बना दिए जाएँ, और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मूल अधिकार सुविधाएँ बन जाएँ, तब लड़ाई सिर्फ़ पैसे की नहीं, आत्म-सम्मान की हो जाती है।

दुर्गापुर के एक ऑटो चालक ने कहा, “जब मैंने सब्सिडी के लिए आवेदन किया, तो मुझे उद्यमी कहा गया। जब बीमा माँगा, तो कहा गया आप स्वरोज़गार वाले हैं। तो फिर मैं क्या हूँ—मतदाता, लाभार्थी या सिर्फ़ मूर्ख?” इस सवाल में वह व्यथा छुपी है जिसे लाखों लोग सालों से झेल रहे हैं।

अब यह देखना है कि सरकार इस आंदोलन को किस नज़र से देखती है। केवल पुलिस और दमन के भरोसे यह आंदोलन नहीं रुकेगा। क्योंकि यह अब केवल माँगों की सूची नहीं, बल्कि जवाबदेही की माँग है—उन वादों की जो हर चुनावी मंच से किए गए थे।

जब जनता के पास खोने को कुछ नहीं रह जाता, तब वो सिर्फ़ विरोध नहीं करती—वो विकल्प तलाशती है।

और आज की सड़कों पर दिख रहा है कि उस तलाश की शुरुआत हो चुकी है।

Tags: 9 जुलाई देशव्यापी बंदन्यूनतम वेतन 26000पुरानी पेंशन योजना बहालीभारत मज़दूर हड़ताल 2025भारत में श्रमिक विद्रोहमजदूर आंदोलन भारतमजदूरों की मांगें 2025रोजगार और सामाजिक सुरक्षालाल झंडा आंदोलनस्कीम वर्कर प्रदर्शन
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