अमित पांडेय
कॉमेडियन वीर दास और कुणाल कामरा जैसे कलाकारों ने अपने व्यंग्य में इस विडंबना को कई बार उजागर किया है कि सरकारें धार्मिक आयोजनों पर करोड़ों खर्च करती हैं, लेकिन बुनियादी सुरक्षा इंतजामों की घोर अनदेखी करती हैं। एक कॉमेडियन ने कटाक्ष किया था, “भारत में भगवान VIP हैं, लेकिन भक्त केवल ‘कोलैटरल डैमेज’।” भारत, जहां आस्था जीवन का केंद्र है, वहां सालभर धार्मिक आयोजनों, मेलों और उत्सवों में करोड़ों लोग शामिल होते हैं। ये आयोजन उत्साह, भक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरे होते हैं। लेकिन इन आयोजनों की सुंदरता और श्रद्धा अकसर दर्दनाक त्रासदियों में बदल जाती है। हालिया महीनों में हुई घटनाएं—कल्पित लेकिन संभावित—जैसे 29 जून 2025 को पुरी में रथ यात्रा के दौरान हुई भगदड़ जिसमें 3 लोगों की मौत और 50 से अधिक घायल हुए, बेंगलुरु में IPL जश्न के दौरान मची अफरा-तफरी, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की भीड़भाड़ और प्रयागराज में कुंभ के दौरान मची भगदड़—इन सबने भारत के भीड़ प्रबंधन की असफलता को एक बार फिर उजागर कर दिया है। यह बताता है कि हम अभी भी ‘तमाशे’ को प्राथमिकता देते हैं, लोगों की जान की सुरक्षा को नहीं। इन हादसों की कहानियां एक जैसी हैं—अव्यवस्था, अफरातफरी, और प्रशासन की अनुपस्थिति। पुरी की घटना का वर्णन—सुबह चार बजे दो ट्रकों का गोंदिचा मंदिर के पास घुसी भीड़ में प्रवेश करना, जबकि पुलिस और चिकित्सा कर्मियों का कोई अता-पता नहीं—भविष्य की कल्पना नहीं, बल्कि हमारे प्रशासन की स्थायी नाकामी का परिचय है। यह इस बात का उदाहरण है कि छोटी सी चूक, जैसे भीड़भाड़ वाले क्षेत्र में वाहनों की अनुमति, कैसे जानलेवा साबित हो सकती है। इन घटनाओं को “दैवीय आपदा” कह कर टालना एक भयानक बहाना है। ये हादसे अक्षम योजना, अपर्याप्त ढांचे और जवाबदेही की कमी का परिणाम हैं। पिछले कुछ ही महीनों में चार बड़े हादसे हुए हैं—जनवरी में कुंभ स्नान पर भगदड़, फरवरी में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हादसा, मई में बेंगलुरु का IPL समारोह, और अब जून में पुरी। इन सभी का एक पैटर्न है: ढीली व्यवस्था, बिना योजना के विशाल भीड़ और हादसे के बाद मुआवजा। इतिहास गवाह है कि हमने पिछली घटनाओं से कोई सीख नहीं ली। 2013 में प्रयागराज कुंभ की भगदड़ जिसमें 42 लोगों की मौत हुई थी, ने चेतावनी दी थी। लेकिन सालों बाद भी वही गलतियां दोहराई जा रही हैं। उचित इंट्री और एग्जिट पॉइंट्स, इमरजेंसी रूट्स, लाइव अनाउंसमेंट सिस्टम और मेडिकल सपोर्ट जैसी बुनियादी व्यवस्थाएं अब भी कई आयोजनों में नदारद हैं। पुरी के एक भक्त का बयान—“भीड़ खुद को खुद ही बचा रही थी”—व्यवस्था की इस विफलता का जीवंत उदाहरण है। इन त्रासदियों के बाद राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी पूर्वनिर्धारित स्क्रिप्ट जैसी होती हैं। जैसे पुरी की घटना के बाद ओडिशा सरकार ने मारे गए लोगों के परिजनों को ₹25 लाख का मुआवजा देने की घोषणा की। लेकिन यह रकम किसी परिवार के दुख को कम नहीं कर सकती। एक मृतक के पति ने कहा, “मेरे नुकसान की भरपाई कौन करेगा?” यही सवाल पूरे सिस्टम की नैतिक विफलता को उजागर करता है—जहां इंसानी जानें सिर्फ आंकड़े बनकर रह गई हैं। धार्मिक आयोजन अब केवल आस्था का विषय नहीं रह गए हैं। वे राजनीति और अर्थव्यवस्था के लिए साधन बन गए हैं। राज्य सरकारें इन आयोजनों को बड़े पैमाने पर प्रचारित करती हैं—धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक पूंजी में रूपांतरण होता है। आयोजन बड़े होते जा रहे हैं, लेकिन सुरक्षा इंतजाम वही पुराने, ढीले और असंगठित। जिस उत्सव को प्रशासनिक सफलता का प्रतीक माना जाता है, वहां हुई मौतों को ‘अनहोनी’ कहकर नकार दिया जाता है। यह सोची-समझी नीति है, जिसमें भीड़ जितनी बड़ी, आयोजन उतना सफल माना जाता है—चाहे वह कितनी भी खतरनाक क्यों न हो। विपक्षी नेता, जैसे नवीन पटनायक और मल्लिकार्जुन खड़गे, इन घटनाओं को “अक्षम्य लापरवाही” कहते हैं और वे गलत नहीं हैं। पुरी के वरिष्ठ सेवायत बिनायक दासमोहापात्र कहते हैं, “पचास सालों में ऐसी अव्यवस्था नहीं देखी।” यह केवल भक्तों की अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि उस प्रशासन की विफलता की बात है जो व्यवस्था ही नहीं बना पाया। भारत के धार्मिक सिद्धांत कहते हैं—“मानव सेवा ही माधव सेवा है।” लेकिन व्यवहार में यह भावना खोती जा रही है। कई बार तो यह लगता है कि इंसानी जानें, पूजा के ‘बलिदान’ बन गई हैं। यह उदास स्थिति सिर्फ धार्मिक आयोजनों तक सीमित नहीं है—कोविड लॉकडाउन के समय भूखे पैदल मजदूरों की मौतें या नोटबंदी के समय बैंक की लाइनों में दम तोड़ते लोग भी इसी उपेक्षा का परिणाम हैं। अब समय है कि भारत भीड़ प्रबंधन के प्रति अपनी सोच को बदले। केवल हादसों के बाद मुआवजा देने का तरीका नहीं, बल्कि हादसों को रोकने की रणनीति अपनाई जाए। इसके लिए टेक्नोलॉजी, प्लानिंग और तत्परता का संगम जरूरी है। AI आधारित CCTV, ड्रोन से निगरानी, रियल टाइम डेटा एनालिटिक्स जैसी तकनीकों का उपयोग भीड़ को सही तरीके से नियंत्रित करने में मदद करेगा। आयोजन स्थलों पर बड़े और स्पष्ट गेट, बहुभाषीय घोषणाएं, ‘होल्डिंग एरिया’ और चरणबद्ध एंट्री अनिवार्य की जानी चाहिए। सिर्फ पुलिस नहीं, बल्कि विशेष रूप से प्रशिक्षित डिजास्टर रिस्पॉन्स टीमें—जो भीड़ की मनोविज्ञान, प्राथमिक उपचार और आपात निकासी में दक्ष हों—हर आयोजन में तैनात की जानी चाहिए। उनके पास चिकित्सा उपकरण, कम्युनिकेशन टूल्स और निर्णय लेने की शक्ति होनी चाहिए। और सबसे जरूरी—कानूनी जवाबदेही तय की जाए। सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों को निलंबित करना काफी नहीं। लापरवाह राजनीतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारों पर मुकदमा चलाने के प्रावधान हों ताकि ये अपराध दोहराए न जा सकें। साथ ही, आम लोगों को भी सुरक्षा के बारे में जागरूक करना ज़रूरी है—ताकि संकट की घड़ी में वे खुद की और दूसरों की मदद कर सकें। जब तक शासन-प्रशासन प्रतीकात्मक माफी और सांत्वना में उलझा रहेगा, तब तक ये त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी। पुरी के चश्मदीद की बात—“भीड़ को खुद ही बचना पड़ा”—सरकार के उस चरित्र की पोल खोलती है जो आस्था को बढ़ावा देता है, लेकिन आस्थावानों की सुरक्षा को नहीं। भारत की असली ताकत सिर्फ उसकी अर्थव्यवस्था या सांस्कृतिक विरासत नहीं, बल्कि अपने नागरिकों की जान की कीमत पहचानने में है। अगर हम सच में एक आध्यात्मिक राष्ट्र कहलाना चाहते हैं, तो आस्था को मौत का कारण नहीं बनने देना होगा। बदलाव का समय आ गया है—इससे पहले कि अगली त्रासदी हमारी चेतना को फिर से झकझोर दे। आस्था नहीं, अव्यवस्था बन रही है मौत की वजह: भारत में भीड़ प्रबंधन की घातक नाकामी अमित पांडेय कॉमेडियन वीर दास और कुणाल कामरा जैसे कलाकारों ने अपने व्यंग्य में इस विडंबना को कई बार उजागर किया है कि सरकारें धार्मिक आयोजनों पर करोड़ों खर्च करती हैं, लेकिन बुनियादी सुरक्षा इंतजामों की घोर अनदेखी करती हैं। एक कॉमेडियन ने कटाक्ष किया था, “भारत में भगवान VIP हैं, लेकिन भक्त केवल ‘कोलैटरल डैमेज’।” भारत, जहां आस्था जीवन का केंद्र है, वहां सालभर धार्मिक आयोजनों, मेलों और उत्सवों में करोड़ों लोग शामिल होते हैं। ये आयोजन उत्साह, भक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरे होते हैं। लेकिन इन आयोजनों की सुंदरता और श्रद्धा अकसर दर्दनाक त्रासदियों में बदल जाती है। हालिया महीनों में हुई घटनाएं—कल्पित लेकिन संभावित—जैसे 29 जून 2025 को पुरी में रथ यात्रा के दौरान हुई भगदड़ जिसमें 3 लोगों की मौत और 50 से अधिक घायल हुए, बेंगलुरु में IPL जश्न के दौरान मची अफरा-तफरी, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की भीड़भाड़ और प्रयागराज में कुंभ के दौरान मची भगदड़—इन सबने भारत के भीड़ प्रबंधन की असफलता को एक बार फिर उजागर कर दिया है। यह बताता है कि हम अभी भी ‘तमाशे’ को प्राथमिकता देते हैं, लोगों की जान की सुरक्षा को नहीं। इन हादसों की कहानियां एक जैसी हैं—अव्यवस्था, अफरातफरी, और प्रशासन की अनुपस्थिति। पुरी की घटना का वर्णन—सुबह चार बजे दो ट्रकों का गोंदिचा मंदिर के पास घुसी भीड़ में प्रवेश करना, जबकि पुलिस और चिकित्सा कर्मियों का कोई अता-पता नहीं—भविष्य की कल्पना नहीं, बल्कि हमारे प्रशासन की स्थायी नाकामी का परिचय है। यह इस बात का उदाहरण है कि छोटी सी चूक, जैसे भीड़भाड़ वाले क्षेत्र में वाहनों की अनुमति, कैसे जानलेवा साबित हो सकती है। इन घटनाओं को “दैवीय आपदा” कह कर टालना एक भयानक बहाना है। ये हादसे अक्षम योजना, अपर्याप्त ढांचे और जवाबदेही की कमी का परिणाम हैं। पिछले कुछ ही महीनों में चार बड़े हादसे हुए हैं—जनवरी में कुंभ स्नान पर भगदड़, फरवरी में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हादसा, मई में बेंगलुरु का IPL समारोह, और अब जून में पुरी। इन सभी का एक पैटर्न है: ढीली व्यवस्था, बिना योजना के विशाल भीड़ और हादसे के बाद मुआवजा। इतिहास गवाह है कि हमने पिछली घटनाओं से कोई सीख नहीं ली। 2013 में प्रयागराज कुंभ की भगदड़ जिसमें 42 लोगों की मौत हुई थी, ने चेतावनी दी थी। लेकिन सालों बाद भी वही गलतियां दोहराई जा रही हैं। उचित इंट्री और एग्जिट पॉइंट्स, इमरजेंसी रूट्स, लाइव अनाउंसमेंट सिस्टम और मेडिकल सपोर्ट जैसी बुनियादी व्यवस्थाएं अब भी कई आयोजनों में नदारद हैं। पुरी के एक भक्त का बयान—“भीड़ खुद को खुद ही बचा रही थी”—व्यवस्था की इस विफलता का जीवंत उदाहरण है। इन त्रासदियों के बाद राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी पूर्वनिर्धारित स्क्रिप्ट जैसी होती हैं। जैसे पुरी की घटना के बाद ओडिशा सरकार ने मारे गए लोगों के परिजनों को ₹25 लाख का मुआवजा देने की घोषणा की। लेकिन यह रकम किसी परिवार के दुख को कम नहीं कर सकती। एक मृतक के पति ने कहा, “मेरे नुकसान की भरपाई कौन करेगा?” यही सवाल पूरे सिस्टम की नैतिक विफलता को उजागर करता है—जहां इंसानी जानें सिर्फ आंकड़े बनकर रह गई हैं। धार्मिक आयोजन अब केवल आस्था का विषय नहीं रह गए हैं। वे राजनीति और अर्थव्यवस्था के लिए साधन बन गए हैं। राज्य सरकारें इन आयोजनों को बड़े पैमाने पर प्रचारित करती हैं—धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक पूंजी में रूपांतरण होता है। आयोजन बड़े होते जा रहे हैं, लेकिन सुरक्षा इंतजाम वही पुराने, ढीले और असंगठित। जिस उत्सव को प्रशासनिक सफलता का प्रतीक माना जाता है, वहां हुई मौतों को ‘अनहोनी’ कहकर नकार दिया जाता है। यह सोची-समझी नीति है, जिसमें भीड़ जितनी बड़ी, आयोजन उतना सफल माना जाता है—चाहे वह कितनी भी खतरनाक क्यों न हो। विपक्षी नेता, जैसे नवीन पटनायक और मल्लिकार्जुन खड़गे, इन घटनाओं को “अक्षम्य लापरवाही” कहते हैं और वे गलत नहीं हैं। पुरी के वरिष्ठ सेवायत बिनायक दासमोहापात्र कहते हैं, “पचास सालों में ऐसी अव्यवस्था नहीं देखी।” यह केवल भक्तों की अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि उस प्रशासन की विफलता की बात है जो व्यवस्था ही नहीं बना पाया। भारत के धार्मिक सिद्धांत कहते हैं—“मानव सेवा ही माधव सेवा है।” लेकिन व्यवहार में यह भावना खोती जा रही है। कई बार तो यह लगता है कि इंसानी जानें, पूजा के ‘बलिदान’ बन गई हैं। यह उदास स्थिति सिर्फ धार्मिक आयोजनों तक सीमित नहीं है—कोविड लॉकडाउन के समय भूखे पैदल मजदूरों की मौतें या नोटबंदी के समय बैंक की लाइनों में दम तोड़ते लोग भी इसी उपेक्षा का परिणाम हैं। अब समय है कि भारत भीड़ प्रबंधन के प्रति अपनी सोच को बदले। केवल हादसों के बाद मुआवजा देने का तरीका नहीं, बल्कि हादसों को रोकने की रणनीति अपनाई जाए। इसके लिए टेक्नोलॉजी, प्लानिंग और तत्परता का संगम जरूरी है। AI आधारित CCTV, ड्रोन से निगरानी, रियल टाइम डेटा एनालिटिक्स जैसी तकनीकों का उपयोग भीड़ को सही तरीके से नियंत्रित करने में मदद करेगा। आयोजन स्थलों पर बड़े और स्पष्ट गेट, बहुभाषीय घोषणाएं, ‘होल्डिंग एरिया’ और चरणबद्ध एंट्री अनिवार्य की जानी चाहिए। सिर्फ पुलिस नहीं, बल्कि विशेष रूप से प्रशिक्षित डिजास्टर रिस्पॉन्स टीमें—जो भीड़ की मनोविज्ञान, प्राथमिक उपचार और आपात निकासी में दक्ष हों—हर आयोजन में तैनात की जानी चाहिए। उनके पास चिकित्सा उपकरण, कम्युनिकेशन टूल्स और निर्णय लेने की शक्ति होनी चाहिए। और सबसे जरूरी—कानूनी जवाबदेही तय की जाए। सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों को निलंबित करना काफी नहीं। लापरवाह राजनीतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारों पर मुकदमा चलाने के प्रावधान हों ताकि ये अपराध दोहराए न जा सकें। साथ ही, आम लोगों को भी सुरक्षा के बारे में जागरूक करना ज़रूरी है—ताकि संकट की घड़ी में वे खुद की और दूसरों की मदद कर सकें। जब तक शासन-प्रशासन प्रतीकात्मक माफी और सांत्वना में उलझा रहेगा, तब तक ये त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी। पुरी के चश्मदीद की बात—“भीड़ को खुद ही बचना पड़ा”—सरकार के उस चरित्र की पोल खोलती है जो आस्था को बढ़ावा देता है, लेकिन आस्थावानों की सुरक्षा को नहीं। भारत की असली ताकत सिर्फ उसकी अर्थव्यवस्था या सांस्कृतिक विरासत नहीं, बल्कि अपने नागरिकों की जान की कीमत पहचानने में है। अगर हम सच में एक आध्यात्मिक राष्ट्र कहलाना चाहते हैं, तो आस्था को मौत का कारण नहीं बनने देना होगा। बदलाव का समय आ गया है—इससे पहले कि अगली त्रासदी हमारी चेतना को फिर से झकझोर दे।