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भारत-पाकिस्तान युद्धविराम: अमेरिकी दबाव में हुआ समझौता या रणनीतिक मजबूरी?

22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले ने दक्षिण एशिया को एक बार फिर युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया। इस हमले में 26 निर्दोष भारतीय नागरिकों की जान गई, जिनमें अधिकांश पर्यटक थे।

News Desk by News Desk
May 11, 2025
in संपादकीय
भारत-पाकिस्तान युद्धविराम: अमेरिकी दबाव में हुआ समझौता या रणनीतिक मजबूरी?
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22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले ने दक्षिण एशिया को एक बार फिर युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया। इस हमले में 26 निर्दोष भारतीय नागरिकों की जान गई, जिनमें अधिकांश पर्यटक थे। भारत ने इस कायराना हमले के पीछे पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों का हाथ बताया और त्वरित प्रतिक्रिया में सीमापार एयरस्ट्राइक कर आतंकवादी ठिकानों को निशाना बनाया। वहीं पाकिस्तान ने इसका जवाब “ऑपरेशन बुनियान उल मर्सूस” के तहत भारतीय सैन्य ठिकानों पर हमले कर दिया।
लगभग दो सप्ताह तक चले इस सैन्य टकराव में दोनों ओर से मिसाइल और ड्रोन हमले हुए, जिसमें 60 से अधिक नागरिकों की जान गई और हजारों लोगों को युद्धग्रस्त क्षेत्रों से सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया। विश्व समुदाय खासकर अमेरिका, चीन और G7 देशों ने स्थिति को बेहद गंभीर मानते हुए हस्तक्षेप की पेशकश की।

इस तनावपूर्ण पृष्ठभूमि में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अचानक घोषणा की कि भारत और पाकिस्तान ने एक “पूर्ण और तात्कालिक युद्धविराम” पर सहमति जता दी है। उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल’ पर लिखा, “यह समझौता अमेरिका द्वारा मध्यस्थता के जरिये रातभर की बातचीत के बाद हुआ है।” इस घोषणा ने भारत और पाकिस्तान दोनों की मीडिया और जनता को आश्चर्यचकित कर दिया क्योंकि उस वक्त तक नई दिल्ली और इस्लामाबाद ने औपचारिक रूप से युद्धविराम की पुष्टि नहीं की थी।
भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने थोड़ी देर बाद बयान जारी कर बताया कि दोनों देशों के सैन्य संचालन महानिदेशक (DGMO) ने दोपहर 3:35 बजे टेलीफोन पर बातचीत की और 5:00 बजे से युद्धविराम लागू करने पर सहमति बनी। पाकिस्तान के उपप्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार ने भी इस खबर की पुष्टि की और कहा कि पाकिस्तान हमेशा क्षेत्रीय शांति चाहता है, बशर्ते उसकी संप्रभुता बनी रहे।

लेकिन सवाल यह है कि यह युद्धविराम क्यों और कैसे हुआ? क्या यह एक समानुभूति पर आधारित समझौता है या फिर अंतरराष्ट्रीय दबाव और रणनीतिक विवशताओं का नतीजा?

सूत्रों के अनुसार पाकिस्तान पर IMF की आर्थिक सहायता की शर्तों में से एक था कि वह क्षेत्रीय तनाव कम करे और आतंकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखे। अमेरिका ने इस मोर्चे पर पाकिस्तान को स्पष्ट संकेत दिया कि यदि वह शांति के लिए तैयार नहीं होता, तो आर्थिक राहत की बातचीत पर असर पड़ सकता है। वहीं भारत पर अमेरिका ने व्यापार समझौते के तहत शुल्क छूट की शर्तें लागू करने का दबाव बनाया। इसके अलावा, अमेरिका द्वारा हाल ही में अवैध भारतीय अप्रवासियों को अपमानजनक तरीके से निर्वासित किए जाने पर भी भारत की प्रतिक्रिया बेहद मद्धिम रही — जो बताता है कि वाशिंगटन-नई दिल्ली रिश्तों में शक्ति-संतुलन अमेरिका के पक्ष में झुक चुका है।

इस पूरे घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान दोनों को अपनी-अपनी जगह दिखा दी है। अमेरिका की दृष्टि में भारत कोई “स्वतंत्र भू-राजनीतिक शक्ति” नहीं है, बल्कि एक ऐसा सहयोगी है जिसे नियंत्रित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार द्वारा कूटनीतिक तौर पर इस युद्ध को आगे न बढ़ाने का निर्णय, शायद देश के अंदर चुनावी संतुलन और अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते लिया गया है।

वहीं पाकिस्तान ने जहां सार्वजनिक रूप से यह दिखाया कि वह झुक नहीं रहा, वहीं अंदर ही अंदर उसने अमेरिका की मध्यस्थता को IMF सहायता के लिए जरूरी कदम माना। इस युद्धविराम से सबसे अधिक लाभ पाकिस्तान को हुआ क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर “शांति समर्थक” की छवि बनाने में सफल हुआ और साथ ही आर्थिक राहत का रास्ता भी साफ हुआ।

हालांकि, जमीन पर सच्चाई कुछ और ही है। युद्धविराम लागू होने के कुछ घंटों के भीतर ही पुंछ, राजौरी और पाकिस्तान की नीलम घाटी में एक बार फिर गोलीबारी और ड्रोन हमलों की खबरें आईं। दोनों देशों ने एक-दूसरे पर उल्लंघन का आरोप लगाया। भारत का कहना है कि यह “रणनीतिक विराम” है, स्थायी समाधान नहीं। अगले दौर की सैन्य बातचीत 12 मई को निर्धारित है।

इस पूरी स्थिति का गहन विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि यह युद्धविराम दोनों देशों की जनता या नेताओं की सद्भावना से नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और तात्कालिक रणनीतिक जरूरतों की उपज है। न तो भारत पाकिस्तान पर भरोसा करता है, न ही पाकिस्तान भारत के इरादों को लेकर आश्वस्त है। जब तक मूल समस्याओं — जैसे कि सीमा विवाद, आतंकवाद और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता — का समाधान नहीं होगा, तब तक ऐसे युद्धविराम केवल अस्थायी राहत ही देंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि दक्षिण एशिया एक बार फिर युद्ध की कगार से पीछे हटा है, लेकिन यह पीछे हटना स्थायी शांति की ओर पहला कदम नहीं, बल्कि एक और अस्थायी ठहराव है — जो कभी भी टूट सकता है।
लेखक: अमित पांडे

 

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