— अमित पांडे
Alpha Design Technologies: भारत सरकार द्वारा घोषित $3 बिलियन के सैटेलाइट मॉनिटरिंग और स्पेस सिक्योरिटी प्रोजेक्ट के लिए जिन तीन निजी कंपनियों का चयन किया गया है—Ananth Technologies, Centum Electronics और Alpha Design Technologies—उनका चयन एक ओर आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बड़ा कदम माना जा सकता है, तो दूसरी ओर इससे जुड़े कई रणनीतिक और व्यावसायिक सवाल भी उठते हैं। खासतौर पर जब विदेशी कंपनियाँ जैसे Starlink और OneWeb भारत के सैटेलाइट इंटरनेट और संचार बाजार में प्रवेश चाह रही हैं, ऐसे में इस सरकारी निर्णय का व्यापक विश्लेषण आवश्यक है।
इन तीनों कंपनियों की मजबूत पृष्ठभूमि और अनुभव निर्विवाद है। Ananth Technologies और Centum Electronics वर्षों से ISRO और रक्षा मंत्रालय के साथ काम करते आ रहे हैं। Alpha Design Technologies की बात करें तो यह अब प्रत्यक्ष रूप से अडानी ग्रुप के अधीन है, जिसे अडानी डिफेंस एंड एयरोस्पेस डिवीजन ने 2018 में खरीदा था। इस अधिग्रहण ने अडानी समूह को अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता प्रदान की। चंद्रयान-3 जैसी महत्त्वपूर्ण अभियानों में इन कंपनियों की भागीदारी इस बात का प्रमाण है कि वे अत्याधुनिक तकनीक, सैटेलाइट निर्माण और निगरानी प्रणालियों में पारंगत हैं।
हालांकि, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब भारत में BEL, Tata Advanced Systems, Dhruva Space, और Pixxel जैसी अन्य सशक्त कंपनियाँ भी मौजूद हैं, तो चयन केवल इन्हीं तीन पर क्यों सीमित रहा? इसका उत्तर संभावतः उनके बुनियादी ढांचे, अतीत में बड़े सरकारी प्रोजेक्ट्स को हैंडल करने का अनुभव, और सुरक्षा निगरानी प्रणालियों में विशेषज्ञता से संबंधित है। लेकिन एक और महत्वपूर्ण कारण हो सकता है—राजनीतिक समीकरण और रणनीतिक पूंजी।
Alpha Design Technologies के अडानी ग्रुप से जुड़ाव को लेकर चिंताएं उठना स्वाभाविक हैं, खासकर तब जब देश में एक बड़ा वर्ग निजी पूंजी और रणनीतिक क्षेत्रों में इसके बढ़ते वर्चस्व को लेकर असहज है। रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक निजी नियंत्रण से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील पहलुओं पर प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं। क्या देश की सुरक्षा व्यवस्था किसी एक कॉर्पोरेट समूह के प्रभाव में आ रही है? यह चर्चा अब सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक स्तर पर गंभीर हो गई है।
दूसरी ओर, Starlink जैसी विदेशी कंपनियों का प्रवेश रोकने के लिए जो कड़े नियम लागू किए गए हैं—जैसे भारत में डेटा स्टोरेज अनिवार्यता और निगरानी नियमों का पालन—वो भले ही देश की साइबर संप्रभुता के लिए जरूरी हों, लेकिन इसका एक और पहलू यह है कि इससे भारतीय टेलीकॉम और स्पेस कंपनियों को एक प्रकार की सुरक्षा कवच मिल जाती है। Jio, Airtel, BSNL और Vodafone जैसी कंपनियों को Starlink के आने से जो सीधा खतरा होता, वह अब टल गया है। लेकिन यह कदम क्या एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बाधित कर रहा है? और क्या यह स्पेस क्षेत्र में ‘मोनोपॉली’ जैसी स्थिति की ओर ले जा रहा है?
भारत ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल को अपनाकर स्पेस और रक्षा क्षेत्र में नई दिशा दी है। IN-SPACe जैसी संस्थाएं अब निजी कंपनियों को भी बड़े प्रोजेक्ट्स में भाग लेने का अवसर दे रही हैं। लेकिन फिर भी, कुछ चुनिंदा कंपनियों को प्राथमिकता देना, और उनमे से एक का सीधे तौर पर अडानी ग्रुप से जुड़ा होना—इससे ‘स्तर playing field’ के सवाल उठते हैं।
वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका के हस्तक्षेप और मध्यस्थता से जुड़ी खबरें और भारत की ‘आत्मनिर्भरता’ के दावे के बीच विरोधाभास भी नजर आता है। अगर हम तीन बिलियन डॉलर का इतना बड़ा प्रोजेक्ट स्वदेशी कंपनियों को दे रहे हैं, तो फिर अमेरिका की भूमिका क्यों? क्या यह भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता को चुनौती देता है या वैश्विक कूटनीतिक समीकरणों का हिस्सा है?
अमेरिका के प्रभाव में आकर भारत द्वारा कुछ व्यापारिक समझौतों में ढील देना, या अवैध अप्रवासियों के मुद्दे पर नरम रवैया अपनाना भी एक प्रकार की रणनीतिक बाध्यता का संकेत देता है। यह स्थिति दिखाती है कि आत्मनिर्भरता के साथ-साथ वैश्विक ताकतों की आवश्यकताओं को संतुलित करना भारत के लिए अनिवार्य होता जा रहा है।
अंततः इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि भारत सरकार की प्राथमिकता निश्चित रूप से आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य की ओर है, लेकिन यह आत्मनिर्भरता पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। इसके पीछे भू-राजनीतिक समीकरण, रणनीतिक निवेश, और घरेलू-विदेशी दबावों का जटिल मिश्रण है। भारत ने जहां अपने अंतरिक्ष क्षेत्र को सशक्त स्वदेशी हाथों में सौंपा है, वहीं अमेरिका जैसे देशों की मध्यस्थता और अडानी ग्रुप की भूमिका जैसे मुद्दे भी इसकी स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
इसलिए यह कहना उचित होगा कि यह निर्णय न तो पूरी तरह आत्मनिर्भरता का प्रतीक है, न ही पूरी तरह दबाव का परिणाम, बल्कि यह एक रणनीतिक समझौता है—जिसमें सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, और भू-राजनीतिक संतुलन तीनों का समावेश है।
(लेखक, जो कि समाचीन विषयों के गहन अध्येता, युवा चिंतक व राष्ट्रीय-आंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं, रणनीति, रक्षा और तकनीकी नीतियों पर विशेष पकड़ रखते हैं।)