अमित पांडे: संपादक
भारतीय शिक्षा का इतिहास किसी प्रशासनिक ढाँचे की कहानी नहीं, बल्कि सत्य की खोज की एक अनंत यात्रा है। हमारे यहाँ शिक्षा का अर्थ कभी नौकरी, परीक्षा या प्रमाणपत्र नहीं रहा; यह आत्मा की उस बेचैनी का उत्तर था जो मनुष्य को ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के लिए प्रेरित करती है। इसी खोज ने महार्षि कणाद को परमाणु तक पहुँचाया, वराहमिहिर को खगोल विज्ञान का अग्रदूत बनाया, सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक और पतंजलि को मनोविज्ञान का प्रथम वैज्ञानिक। ये सब इस बात का प्रमाण हैं कि भारत में विज्ञान और अध्यात्म विरोधी नहीं थे; दोनों सत्य की खोज के दो मार्ग थे।
श्री अरविंदो ने इसी परिप्रेक्ष्य में कहा था—“सच्ची शिक्षा का पहला सिद्धांत यह है कि कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता।” उनका आशय यह था कि शिक्षा बाहरी थोपन नहीं, भीतर की शक्ति को जगाने की प्रक्रिया है। विवेकानंद ने इसे और स्पष्ट किया—“शिक्षा मनुष्य में निहित पूर्णता का प्रकट होना है।” जब शिक्षा का अर्थ इतना व्यापक और आत्मिक हो, तब यह प्रश्न और भी तीखा हो जाता है कि आज हम किस दिशा में जा रहे हैं।
पश्चिमी राजनीतिक दार्शनिकों—शेल्डन वोलिन, डेविड हेल्ड और दांते जर्मिनो—ने भी यही चेताया कि कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था तभी जीवित रहती है जब वह केंद्रीकरण से बचे, प्रतिनिधित्व को वास्तविक बनाए और नागरिकों की भागीदारी को संरचनात्मक रूप से सुनिश्चित करे। वे अपनी बात को अंतिम सत्य नहीं बताते; वे शोध, बहस और निरंतर सुधार को ही लोकतंत्र की आत्मा मानते हैं।
लेकिन भारत में शिक्षा सुधारों की दिशा इन सिद्धांतों से उलट दिखाई देती है। यदि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 वास्तव में परिवर्तनकारी थी, तो फिर 2025 में अचानक विकसित भारत अभियान विधेयक की आवश्यकता क्यों पड़ गई? यह प्रश्न केवल प्रशासनिक नहीं, वैचारिक भी है। क्या यह नया विधेयक किसी असफलता की स्वीकारोक्ति है? या यह उस गहरी दुविधा का परिणाम है जिसमें नीति निर्माता शिक्षा को समझने के बजाय उसे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं?
सबसे बड़ा संकट केंद्रीकरण का है। UGC, AICTE, NCTE और पूरे शिक्षक प्रशिक्षण ढाँचे को एक ही केंद्रीय प्राधिकरण में समेट देना कागज़ पर भले सरल लगे, पर यह शिक्षा की आत्मा के विरुद्ध है। भारत में 17,000 से अधिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं, जो स्थानीय भाषाओं, संस्कृतियों और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षकों को तैयार करते हैं। जब इन्हें एक समान ढाँचे में ढाला जाएगा, तो विविधता, नवाचार और स्थानीय स्वायत्तता का क्या होगा? शिक्षक प्रशिक्षण वह क्षेत्र है जहाँ एकरूपता नहीं, बल्कि संदर्भ विशिष्टता की आवश्यकता होती है।
इसी के समानांतर एक और कठोर तथ्य खड़ा है—पिछले दस वर्षों में एक लाख से अधिक सरकारी प्राथमिक विद्यालय बंद कर दिए गए। कारण बताया गया—कम नामांकन। पर कम नामांकन स्वयं एक नीति जनित समस्या है: पलायन, गरीबी, निजी स्कूलों का दबाव और सरकारी स्कूलों की उपेक्षा। यदि हम सचमुच कृष्ण सुदामा वाली समावेशी शिक्षा परंपरा को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो फिर गरीबों के स्कूल क्यों बंद हो रहे हैं? और जब देश के 81 करोड़ लोग अभी भी 5 किलो राशन पर निर्भर हैं, तब शिक्षा को बाज़ार के हवाले करने का अर्थ क्या है?
वोलिन कहते हैं कि केंद्रीकरण “प्रबंधित लोकतंत्र” पैदा करता है—जहाँ नागरिक दर्शक बन जाते हैं, सहभागी नहीं। शिक्षा वह पहला स्थान है जहाँ बच्चा भागीदारी सीखता है। जब शिक्षक, माता पिता, समुदाय और स्थानीय संस्थाएँ निर्णय प्रक्रिया से बाहर कर दी जाती हैं, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। एक केंद्रीकृत शिक्षा तंत्र आज्ञाकारिता तो पैदा कर सकता है, पर जिज्ञासा नहीं; अनुशासन दे सकता है, पर नवाचार नहीं; व्यवस्था दे सकता है, पर विवेक नहीं।
भारत का शोध ढाँचा भी इसी संकट का शिकार है। देश GDP का केवल 0.7% शोध पर खर्च करता है, जबकि वैश्विक औसत 2.2% है। चीन 2.4%, अमेरिका 3.5% और दक्षिण कोरिया 4.8% खर्च करते हैं। ऐसे में यदि हम शोध को केवल प्रशासनिक सुधारों से बढ़ाना चाहते हैं, तो यह भ्रम है। शोध जिज्ञासा से जन्मता है, जिज्ञासा स्वतंत्रता से, और स्वतंत्रता विकेंद्रीकरण से।
इसलिए प्रश्न केवल यह नहीं कि विधेयक क्या बदलता है; प्रश्न यह है कि यह किस दिशा में ले जाता है। क्या यह शिक्षा को आत्मिक यात्रा से प्रशासनिक प्रक्रिया में बदल देता है? क्या यह लोकतंत्र को भागीदारी से प्रतिनिधित्व और फिर प्रतिनिधित्व से नियंत्रण में बदल देता है? क्या यह उस परंपरा को भूल जाता है जिसने कणाद, सुश्रुत, पतंजलि और अरविंदो को जन्म दिया?
समाधान कठिन नहीं, बस दृष्टि चाहिए। शिक्षक प्रशिक्षण को विकेंद्रीकृत किया जाए, समुदायों को स्कूल प्रबंधन में वास्तविक अधिकार मिले, सरकारी स्कूलों को पुनर्जीवित किया जाए, शोध व्यय को दोगुना किया जाए, और शिक्षा नीति में अरविंदो विवेकानंद की आत्मा को नारे नहीं, संरचनाओं में उतारा जाए।
क्योंकि अंतिम प्रश्न यही है—क्या केंद्रीकरण से सहभागिता आधारित राष्ट्र बन सकता है? यदि उत्तर ‘नहीं’ है, तो छलांग से पहले दिशा बदलनी ही होगी। एक ऐसी दिशा, जहाँ शिक्षा फिर से सत्य की खोज बने—न कि नियंत्रण का साधन।







