बिहार का चुनावी रण एक बार फिर से राजनीतिक दांव-पेंचों और बयानों के जाल में उलझ गया है। इंडिया गठबंधन के द्वारा एनडीए से अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा करने की चुनौती दिए जाने के एक दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समस्तीपुर से चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए नितीश कुमार का नाम तो लिया, पर यह स्पष्ट नहीं किया कि जीत के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वही बैठेंगे। इस तरह प्रधानमंत्री का बयान एक ‘अर्ध-संकल्प’ के रूप में सामने आया — जहां नितीश का नेतृत्व स्वीकार तो किया गया, पर उन पर भरोसे की मुहर नहीं लगाई गई।
मोदी ने अपने भाषण में कहा, “पूरा बिहार कह रहा है – फिर एक बार एनडीए सरकार, फिर एक बार सुशासन सरकार।” यह बयान निश्चित तौर पर नितीश की उपलब्धियों का संकेत देता है, परंतु साथ ही भाजपा के भीतर उस असमंजस को भी उजागर करता है, जो पिछले कुछ महीनों से एनडीए खेमे में नितीश के भविष्य को लेकर बनी हुई है।
प्रधानमंत्री का यह ‘नितीश-केंद्रित’ परंतु ‘नितीश-समर्पित नहीं’ वाला बयान भाजपा की चुनावी रणनीति के दोहरेपन को दर्शाता है। एक ओर भाजपा यह मान रही है कि नितीश कुमार की छवि ‘सुशासन बाबू’ के रूप में अभी भी ग्रामीण मतदाताओं के बीच प्रभावशाली है, वहीं दूसरी ओर पार्टी शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के लिए उन्हें खुला समर्थन देने से बच रहा है।
यह स्थिति तब और रोचक हो जाती है जब विपक्ष ने अपना चेहरा साफ तौर पर घोषित कर दिया है। इंडिया गठबंधन की ओर से तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, “हमारा नेता तय है, अब वे बताएं कि उनका नेता कौन है?” विपक्ष के इस सीधे हमले ने भाजपा को एक रक्षात्मक स्थिति में ला खड़ा किया।
तेजस्वी यादव ने तो यहां तक कहा कि गृहमंत्री अमित शाह का हालिया बयान — जिसमें उन्होंने कहा था कि “एनडीए की जीत के बाद नेता मिलकर तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा” — नितीश कुमार के लिए “चेतावनी” है। उनका दावा था कि भाजपा नितीश को अब केवल ‘चुनावी चेहरा’ के रूप में इस्तेमाल कर रही है, वास्तविक सत्ता किसी नए चेहरे के हाथों में देने की तैयारी हो रही है।
नितीश कुमार, जो अब तक बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता हैं, ने बार-बार यह भरोसा जताया है कि वे 2030 तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे। जदयू ने इसी वर्ष अप्रैल में पटना में बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर यह संदेश दिया था कि “नितीश रहेंगे 2030 तक” — परंतु भाजपा के भीतर यह संदेश उतनी दृढ़ता से नहीं गूंजा। हरियाणा के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता नायब सिंह सैनी का बयान कि “भाजपा बिहार चुनाव सम्राट चौधरी के नेतृत्व में जीतेगी” इस बात की पुष्टि करता है कि saffron camp के भीतर वैकल्पिक नेतृत्व की चर्चा जारी है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने 2020 के बाद से नितीश के साथ एक ‘तटस्थ’ रणनीति अपनाई है। पार्टी नितीश के प्रशासनिक अनुभव का उपयोग करना चाहती है, पर उन्हें भविष्य में निर्णायक भूमिका देने से बचना चाहती है। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एस.एन. झा का कहना है, “भाजपा का लक्ष्य नितीश की लोकप्रियता के सहारे 2025 में सत्ता में वापसी करना है, पर मुख्यमंत्री का पद अंततः अपने किसी विश्वसनीय नेता को सौंपने की दिशा में पार्टी आगे बढ़ रही है।”
विकास बनाम ‘जंगलराज’ की बहस
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में विकास और निवेश को केंद्र में रखकर कहा, “बिहार का कोई कोना ऐसा नहीं जहां भाजपा ने विकास का काम न किया हो। अब बिहार निवेश के लिए आकर्षक गंतव्य बन चुका है। मैं उस बिहार की कल्पना करता हूं जहां हर जिला स्टार्टअप्स से गूंजे।”
यह बयान राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है क्योंकि मोदी ने विकास को भाजपा के नाम से जोड़ा, न कि केवल नितीश की सरकार से। यही संकेत देता है कि भाजपा चाहती है कि विकास का श्रेय उसके ब्रांड के रूप में जाए, ताकि भविष्य में मुख्यमंत्री की दावेदारी भाजपा के भीतर ही मजबूत की जा सके।
इसके विपरीत, प्रधानमंत्री ने आरजेडी शासन को एक बार फिर ‘जंगलराज’ की संज्ञा देते हुए कहा कि अगर बिहार में लालू परिवार की वापसी होती, तो यह विकास संभव नहीं था। भाजपा का यह तर्क पुराने चुनावों की तरह जातीय और प्रशासनिक तुलना पर आधारित है — जहां वह ‘सुशासन बनाम जंगलराज’ की रेखा खींचकर अपने मतदाताओं को एकजुट करना चाहती है।
बिहार का यह चुनाव न केवल सत्ता परिवर्तन का प्रश्न है, बल्कि यह इस बात की परीक्षा भी है कि भाजपा और जदयू के बीच वास्तविक शक्ति संतुलन किस दिशा में झुकेगा। मोदी का बयान एक रणनीतिक संतुलन दिखाता है — उन्होंने नितीश का नाम लेकर उनके मतदाता वर्ग को साधा, पर स्पष्ट घोषणा से बचकर पार्टी के भीतर भविष्य की संभावनाओं को खुला रखा।
इंडिया गठबंधन ने तेजस्वी को आगे कर बिहार की राजनीति को युवा बनाम अनुभवी की धुरी पर खड़ा कर दिया है। दूसरी ओर, भाजपा अब भी “सामूहिक नेतृत्व” की आड़ में वास्तविक शक्ति-राजनीति का खेल खेल रही है।
आगामी चुनावों में यह स्पष्ट होगा कि बिहार की जनता ‘सुशासन’ और ‘विकास’ के नाम पर पुराने चेहरों को दोहराना चाहती है या एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरुआत करने को तैयार है। फिलहाल, प्रधानमंत्री मोदी का यह अर्ध-संकल्प बिहार की राजनीति को और जटिल बना गया है — जहां नाम लिया गया है, पर भरोसा अब भी अधर में है।













