मंजरी की विशेष रिपोर्ट
नई दिल्ली, 25 अक्टूबर। बिहार विधान सभा चुनाव को लेकर सोशल मीडिया पर जंग छिड़ गई है। यूट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप समूह, इंस्टाग्राम, रील्स इस मामले में सबसे आगे हैं। राजनीतिक दलों की तरह सोशल मीडिया पर भी समर्थक बंटे हुए हैं। कोई समूह एन डी ए तो कोई महागठबंधन और कोई बिहार के ” अरविंद केजरीवाल ” की पार्टी के लिए समर्थन जुटा रहा है। लेकिन जमीनी ” जंग ” और आभासी ” जंग ” में एक बुनियादी अंतर है ! ज़मीन पर अपनी – अपनी पार्टी को जिताने की मुहिम चल रही है जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर ” बिहार के केजरीवाल ” प्रशांत किशोर तक शामिल हैं, वहीं तेजस्वी यादव से लेकर तेज प्रताप तक अपनी राजनीतिक नौकरी को सुनिश्चित करने के लिए जी-जान से लग गये हैं ! चिराग पासवान का खेमा एन डी ए की जीत की संभावना में अपने नेता के मुख्यमंत्री बनने का खाका बनाने के लिए राजनीतिक गणित का अध्ययन कर रहा है। आभासी चुनावी युद्ध की रणनीति अधिक उदार है ! उसमें शामिल समर्पित चुनावी कर्मयोगी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर व्यक्तिगत पसंद – नापसंद को आधार बनाकर समर्थन – विरोध कर रहे हैं और जिसका सबसे बड़ा लाभ निर्दलीय तथा बाग़ी उम्मीदवार उठा रहे हैं।
भागलपुर के तीन प्रमुख महाविद्यालय तेज नारायण बनैली कॉलेज ( टी एन बी ), सुंदरवती महिला महाविद्यालय ( एस एम कॉलेज ) और मारवाड़ी कॉलेज के लगभग चार सौ पूर्व विद्यार्थियों का समूह भी इस मामले में अनेक खेमों में बंटा हुआ है। प्रोफेसर डॉ. संजय कुमार मिश्रा अपने एक पूर्व विद्यार्थी को समर्थन देने के लिए वृंदावन से सहरसा पहुंच रहे हैं और भागलपुर में वहां के डिप्टी मेयर को विधान सभा चुनाव में समर्थन दे रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया पर इसी समूह के अनेक लोग एन डी ए को समर्थन दे रहे हैं और कथित जंगल राज की वापसी का खौफ दिखा रहे हैं।
इस मामले में महिलाओं में चुनावी तथ्यों एवं भविष्य की चिंता को लेकर सजगता एवं संजीदगी कहीं अधिक है। रिंकू जी से लेकर प्रीतम मिश्रा तक बड़ी सफाई से अपनी राय जाहिर न कर बिहार चुनाव को मोदी बनाम महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर को बिहार के लोकतांत्रिक अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई से जोड़ रही हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार बिहार विधान सभा चुनाव में सोशल मीडिया स्वयं चुनावी जंग में कमर कस कर कूद चुकी है और चुनाव प्रचार को दिलचस्प बना रही है ! परिणाम अभी तक बेहद अनिश्चित दिख रहा है। संभवतः नवंबर के आगमन के साथ चुनावी अनिश्चितता के बादल कुछ हद तक छंट सकें।
इन सब को लेकर सोशल मीडिया में उठा-पटक जारी है। कुछ प्लेटफॉर्म पर घातक शब्द बाण के प्रयोग किये जा रहे हैं जिसे लेकर साइबर अपराध की श्रेणी में एफ आई आर के खतरे बढ़ गये हैं। साथ ही आचार संहिता के सफल क्रियान्वयन को लेकर चुनाव आयोग की चुनौती बढ़ गई है। वैसे, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका चुनावी विवादों और प्रचार से दूरी बना कर चल रहा है।













