बिहार की राजनीति एक बार फिर ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है। विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया ब्लॉक’ ने आज पटना से जो घोषणा की, उसने बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों की पूरी दिशा और बहस को बदल दिया है। आरजेडी नेता “तेजस्वी यादव” को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार और “विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी)” के नेता “मुकेश सहनी”को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर, विपक्ष ने एनडीए को खुली चुनौती दे दी है। यह न केवल एक राजनीतिक घोषणा है, बल्कि जातीय समीकरणों, सामाजिक प्रतिनिधित्व और नेतृत्व के नए समीकरणों की झलक भी है। घोषणा के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता “अशोक गहलोत” ने कहा कि यह निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष “मल्लिकार्जुन खड़गे” और “राहुल गांधी” की सहमति से लिया गया है। गहलोत ने यह भी जोड़ा कि गठबंधन की सरकार बनने पर एक और पिछड़े वर्ग के नेता को भी उपमुख्यमंत्री बनाया जाएगा। यह बयान स्पष्ट रूप से यह दिखाता है कि विपक्ष अब सामाजिक संतुलन और क्षेत्रीय समीकरणों को लेकर बेहद सतर्क रणनीति पर काम कर रहा है। तेजस्वी यादव ने इस मौके पर कहा कि “हम केवल सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि बिहार को बनाने के लिए साथ आए हैं।”
उनका यह बयान यह संकेत देता है कि वे खुद को महज लालू यादव के उत्तराधिकारी के रूप में नहीं, बल्कि बिहार के विकास के एजेंडे पर आधारित एक नई राजनीति के प्रतीक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि अगर महागठबंधन की सरकार बनी तो “20 महीने में वो विकास कार्य पूरे होंगे जो एनडीए बीस साल में नहीं कर सका।” यह वाक्यांश उनके आत्मविश्वास और आक्रामक राजनीतिक शैली दोनों को रेखांकित करता है। तेजस्वी ने सीधे तौर पर एनडीए पर हमला करते हुए कहा कि “बीजेपी वाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे।” यह आरोप महज बयानबाज़ी नहीं, बल्कि बिहार की सियासी वास्तविकता की ओर इशारा करता है। भाजपा और जदयू के बीच पिछले कुछ वर्षों में जो अविश्वास और ‘शर्तीय गठबंधन’ की स्थिति बनी है, उसे तेजस्वी ने चुनावी मुद्दा बना दिया है। उन्होंने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए कहा—“जैसे वहां शिंदे को आगे किया गया और बाद में सत्ता समीकरण बदले गए, वैसा ही बिहार में भी होगा।” राजनीतिक विश्लेषक इस निर्णय को विपक्ष की “साफ़ रणनीतिक घोषणा” मान रहे हैं। “सीपीआई(एमएल)” के महासचिव “दीपंकर भट्टाचार्य” ने कहा कि “पिछली बार हम कुछ सीटों से पीछे रह गए थे, इस बार वह कमी पूरी होगी।” उन्होंने यह भी कहा कि इस बार बिहार महाराष्ट्र या झारखंड की राह नहीं चलेगा—“बिहार संविधान की रक्षा करेगा और भाजपा के एजेंडे को नकार देगा।”
दरअसल, इस घोषणा के बाद एनडीए के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। जहां विपक्षी गठबंधन ने स्पष्ट रूप से अपने चेहरे तय कर दिए हैं, वहीं भाजपा-जदयू गठबंधन अब तक यह तय नहीं कर पाया है कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा। नीतीश कुमार की राजनीतिक विश्वसनीयता पर पहले ही कई बार सवाल उठ चुके हैं—कभी महागठबंधन में, तो कभी एनडीए में आने-जाने से उनकी छवि अस्थिर नेता की बन चुकी है। यही कारण है कि तेजस्वी का यह हमला असरदार बनता है कि “बीजेपी खुद नीतीश को खत्म कर देगी, चुनाव के बाद जदयू का नाम भी नहीं रहेगा।” इस घोषणा का दूसरा बड़ा पक्ष है—“सामाजिक प्रतिनिधित्व” तेजस्वी यादव जहां यादव-मुस्लिम-दलित गठजोड़ के पारंपरिक वोट बैंक पर भरोसा करते हैं, वहीं मुकेश सहनी का चेहरा मल्लाह और मछुआरा समुदाय को जोड़ने का प्रयास है, जो हाल के वर्षों में एनडीए की ओर झुक गए थे। सहनी ने भावुक स्वर में कहा—“तीन साल से मैं इस दिन का इंतज़ार कर रहा था। भाजपा ने हमारे विधायकों को तोड़ दिया और गरीब मल्लाहों को सड़कों पर ला दिया। अब हम बीजेपी को तोड़कर रहेंगे।” सहनी की यह घोषणा सामाजिक न्याय की राजनीति में नई ऊर्जा जोड़ती है और महागठबंधन को एक व्यापक जनाधार दिला सकती है।
तेजस्वी की घोषणाएँ—हर परिवार को सरकारी नौकरी, जीविका दीदियों और संविदा कर्मियों का नियमितीकरण, महिलाओं को 2500 रुपये प्रति माह ‘माई-बहिन मान योजना’ के तहत, और 500 रुपये में गैस सिलिंडर—लोकप्रिय वादे हैं जो सीधा मध्यम और निम्नवर्गीय परिवारों को आकर्षित करते हैं। भाजपा जहां “डबल इंजन सरकार” के विकास मॉडल की बात करती है, वहीं तेजस्वी का यह घोषणापत्र “समावेशी कल्याण राज्य” की छवि बनाता है। हालांकि, सवाल यह भी है कि क्या महागठबंधन की यह एकजुटता मतदान तक बनी रहेगी? कांग्रेस, आरजेडी, वीआईपी और वाम दलों के बीच सीट बंटवारे का समीकरण अभी तक तय नहीं हुआ है। विपक्ष की यह रणनीति तभी कारगर होगी जब यह गठबंधन मैदान में सामंजस्य और साझा एजेंडे के साथ उतरेगा। बहरहाल, बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का सवाल नहीं, बल्कि राजनीतिक ईमानदारी, नेतृत्व की स्थिरता और सामाजिक न्याय के नए स्वरूप की परीक्षा भी होगा। तेजस्वी-सहनी की जोड़ी उस नई पीढ़ी की राजनीति का प्रतीक बनकर उभर रही है जो जातीय समीकरणों के साथ-साथ विकास और रोज़गार की वास्तविक मांगों को भी केंद्र में रखती है। इस घोषणा ने बिहार की राजनीति को साफ़ तौर पर दो ध्रुवों में बाँट दिया है—एक तरफ़ बीस साल की सत्ता थकान झेल रही एनडीए, और दूसरी तरफ़ नई उम्मीदों से भरा महागठबंधन। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता “विकास के बीस महीने” के वादे पर भरोसा करती है या “बीस साल की स्थिरता” को फिर से चुनती है। लेकिन इतना तय है कि इस बार बिहार का चुनाव केवल सरकार बदलने का नहीं, बल्कि राजनीति की परिभाषा बदलने का चुनाव होगा।