छठ पर्व के ठीक पहले जब पूरा बिहार अपने घर लौटने की तैयारी में है, तब देश की रेल व्यवस्था की बदहाली ने एक बार फिर सरकार की नीतियों पर सवाल खड़ा कर दिया है। हजारों प्रवासी मजदूर और यात्री ट्रेन के फर्श पर बैठकर, दरवाज़ों पर लटककर या घंटों स्टेशन पर फंसे हुए हैं — यह दृश्य किसी साधारण भीड़भाड़ का नहीं बल्कि एक मानवीय संकट का प्रतीक है। इसी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने मोदी सरकार पर तीखा प्रहार किया है। दोनों नेताओं का आरोप है कि यह संकट सिर्फ प्रबंधन की नाकामी नहीं बल्कि उन करोड़ों प्रवासियों के प्रति असंवेदनशीलता का परिणाम है, जिन्होंने अपने श्रम से भारत की अर्थव्यवस्था को खड़ा किया।
राहुल गांधी ने अपने बयान में कहा कि यह महज़ एक यात्रा नहीं, बल्कि “घर लौटने की चाह” का संघर्ष बन चुका है। उन्होंने लिखा — “दीवाली, भाई दूज और छठ बिहार के लिए सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि घर की मिट्टी से जुड़ने की भावना हैं। लेकिन आज टिकट मिलना नामुमकिन है, ट्रेनें ठसाठस भरी हैं और सफ़र अमानवीय हो गया है। ‘डबल इंजन सरकार’ के दावे खोखले साबित हुए हैं।” उनके इस बयान में एक गहरी राजनीतिक और सामाजिक सच्चाई छिपी है — बिहार आज भी पलायन की त्रासदी से जूझ रहा है। जिस राज्य ने देश को सबसे अधिक श्रमशक्ति दी, वहीं का नागरिक त्योहारों पर भी सम्मानजनक यात्रा नहीं कर पा रहा।
लालू यादव ने भी इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “झूठ का बेताज बादशाह” करार दिया। उन्होंने रेल मंत्रालय के उस दावे को “झूठा और भ्रामक” बताया जिसमें कहा गया कि देश की 13,198 ट्रेनों में से 12,000 ट्रेनें बिहार की ओर चलाई जा रही हैं। लालू का कहना था, “इनकी सरकार के झूठ अब जनता समझ चुकी है। बिहार के लोग छठ जैसे आस्था के पर्व में भी लटक-लटककर सफर करने को मजबूर हैं, यह शर्मनाक है।”
वास्तविकता यह है कि रेलवे द्वारा 12,000 अतिरिक्त ट्रेनें चलाने के बावजूद हालात सुधरे नहीं। सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में यात्री ट्रेन की फर्श पर बैठे दिखते हैं, कोई दरवाज़े पर लटक रहा है तो कोई कई घंटे से शौचालय नहीं जा सका। लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर खड़ी अवध असम एक्सप्रेस के एक यात्री ने कहा, “मैंने ट्रेन में चढ़ने के बाद से पानी तक नहीं पिया। डर है कि कहीं जगह न मिल जाए।” यह बयान अकेले उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि उन हजारों लोगों की पीड़ा का प्रतिनिधि है जो सिर्फ अपने घर पहुंचने के लिए अमानवीय स्थितियों में यात्रा कर रहे हैं।
रेलवे के पूर्वोत्तर सीमांत जोन के सीपीआरओ कपिन्जल किशोर शर्मा ने दावा किया कि “सुरक्षित और आरामदायक यात्रा सुनिश्चित करने के लिए” विशेष ट्रेनें चलाई गई हैं और ऑटोमेटिक टिकट मशीनें लगाई गई हैं। लेकिन इन व्यवस्थाओं की हकीकत से हर यात्री वाकिफ है — भीड़, अव्यवस्था और कुप्रबंधन ने इस राहत को मज़ाक बना दिया है।
राहुल गांधी ने इस मुद्दे को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में जोड़ते हुए कहा कि अगर बिहार में रोज़गार और सम्मानजनक जीवन के अवसर होते तो लोगों को हजारों किलोमीटर दूर जाकर मजदूरी नहीं करनी पड़ती। उनका यह कथन केवल एक राजनीतिक बयान नहीं बल्कि बिहार की अर्थव्यवस्था की जड़ समस्या को उजागर करता है — विकास का असमान वितरण। दशकों से केंद्र और राज्य सरकारें बिहार के युवाओं को उद्योग, शिक्षा और रोजगार के अवसर देने में विफल रही हैं। परिणामस्वरूप छठ, जो घर लौटने की सबसे बड़ी सांस्कृतिक प्रेरणा है, हर साल पलायन और पीड़ा की कहानी बन जाती है।
विपक्षी नेता रम्यग्य सिंह ने तो यहां तक आरोप लगाया कि एनडीए सरकार ने जानबूझकर पर्याप्त इंतज़ाम नहीं किए क्योंकि “जो लोग दीपावली और छठ पर लौटते हैं, वे बीजेपी को वोट नहीं देते।” यह आरोप चाहे कितना भी तीखा लगे, लेकिन इसके पीछे जनता की नाराज़गी झलकती है।
यह पूरी स्थिति यह दर्शाती है कि आज का भारत केवल धार्मिक आस्था के नहीं बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी के परीक्षण से गुजर रहा है। जब प्रवासी मजदूर अपनी आस्था के सबसे पवित्र पर्व पर भी अमानवीय परिस्थितियों में घर लौटने को मजबूर हों, तो यह केवल रेल मंत्रालय की नाकामी नहीं बल्कि शासन के चरित्र पर सवाल है। छठ जैसे पर्व हमें सिखाते हैं कि प्रकृति, श्रम और समाज के संतुलन से ही जीवन संभव है — पर जब यही संतुलन राजनीति और उपेक्षा के बीच खो जाए, तो आस्था भी बेबस हो जाती है।
लगभग 800 शब्दों में यह लेख यह स्पष्ट करता है कि छठ पर्व के पूर्व जो यात्रा बिहारियों के लिए घर लौटने का सुखद प्रतीक होना चाहिए था, वह आज बदइंतज़ामी, आर्थिक असमानता और राजनीतिक उदासीनता का प्रतीक बन गया है। यही कारण है कि राहुल गांधी और लालू यादव की आलोचना अब केवल राजनीतिक हमला नहीं बल्कि समाज की सामूहिक चेतना की पुकार प्रतीत होती है।







