अमित पांडे: संपादक
बिहार की राजनीति इस समय जिस मोड़ पर खड़ी है, वहाँ महिलाओं की स्थिति सबसे बड़ा सवाल बन चुकी है। चुनावी माहौल में अक्सर वादों और नारों की गूंज सुनाई देती है, लेकिन जब हम ज़मीनी हकीकत पर नज़र डालते हैं तो तस्वीर बेहद भयावह नज़र आती है। अपराध, स्वास्थ्य और आर्थिक शोषण—ये तीनों मोर्चे मिलकर बिहार की महिलाओं के लिए त्रिकोणीय संकट खड़ा कर चुके हैं। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने हाल ही में जो आँकड़े प्रस्तुत किए, वे केवल चुनावी बयान नहीं बल्कि समाज की गहरी पीड़ा का आईना हैं।
सबसे पहले अपराध की स्थिति पर ध्यान दें। बिहार में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हर साल औसतन 20,222 मामले दर्ज हो रहे हैं और अब तक 2.8 लाख महिलाएँ पीड़ित हो चुकी हैं। यह केवल संख्या नहीं, बल्कि हर आँकड़े के पीछे एक टूटी हुई ज़िंदगी, एक डरी हुई बेटी और एक असुरक्षित परिवार की कहानी छिपी है। सबसे गंभीर तथ्य यह है कि 1,17,947 मामले अदालतों में लंबित हैं और पेंडेंसी दर 98.2 प्रतिशत है। इसका अर्थ है कि न्याय की प्रक्रिया लगभग ठप है। जब अपराधी खुलेआम घूमते हैं और पीड़ित न्याय की प्रतीक्षा में सालों तक भटकते रहते हैं, तो यह व्यवस्था की असफलता का स्पष्ट प्रमाण है। अपहरण के मामलों में 1097 प्रतिशत की वृद्धि केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि सामाजिक असुरक्षा का जीवंत प्रमाण है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सरकार की प्राथमिकताएँ कहाँ हैं और महिलाओं की सुरक्षा क्यों हाशिए पर है।
स्वास्थ्य की स्थिति भी उतनी ही चिंताजनक है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, बिहार की 64 प्रतिशत महिलाएँ और 69.4 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। यह केवल पोषण की कमी नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की उत्पादकता और राज्य की आर्थिक प्रगति पर सीधा प्रहार है। एनीमिया से पीड़ित महिलाएँ गर्भावस्था और प्रसव के दौरान गंभीर जोखिम झेलती हैं, और बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास बाधित होता है। यह स्थिति बताती है कि पोषण योजनाएँ और स्वास्थ्य अभियानों का असर ज़मीनी स्तर पर नहीं पहुँच पा रहा है। जब महिलाएँ ही शारीरिक रूप से कमजोर होंगी, तो समाज की नींव कैसे मजबूत होगी।
आर्थिक मोर्चे पर माइक्रोफाइनेंस कर्ज़जाल महिलाओं के लिए नई त्रासदी बन चुका है। 1 करोड़ 9 लाख महिलाएँ इस जाल में फँसी हुई हैं और औसत मासिक बकाया 30,000 रुपये तक पहुँच चुका है। यह कर्ज़ महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय सामाजिक अपमान, पलायन और आत्महत्या की ओर धकेल रहा है। सुनीता देवी का उदाहरण बताता है कि यह व्यवस्था किस तरह महिलाओं को शोषण और अपमान की ओर धकेल रही है। उन्होंने 40,000 रुपये का ऋण लिया, 68,200 रुपये चुका दिए, फिर भी वसूली एजेंटों की धमकियों का सामना करना पड़ा। यह केवल एक कहानी नहीं, बल्कि लाखों महिलाओं की साझा पीड़ा है। जब कर्ज़ वसूली एजेंट महिलाओं को धमकाते हैं और उनकी गरिमा को कुचलते हैं, तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि इस माइक्रोफाइनेंस माफिया को आखिर किसका संरक्षण प्राप्त है।
चुनाव से ठीक पहले महिलाओं के खातों में 10,000 रुपये जमा करना केवल तात्कालिक राहत है, स्थायी समाधान नहीं। यह कदम महिलाओं की वास्तविक समस्याओं—सुरक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्वतंत्रता—को संबोधित नहीं करता। विपक्षी दल इसे चुनावी हथकंडा बता रहे हैं और महिलाओं के लिए मासिक सहायता व कर्ज़मुक्ति जैसे वादे कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये वादे ज़मीनी हकीकत में बदलेंगे या केवल चुनावी घोष







