भारत के चुनावी इतिहास में EPIC (इलेक्टोरल फोटो आइडेंटिटी कार्ड) कार्ड को एक महत्वपूर्ण कदम माना गया था। इसे पहचान की एकमात्र पक्की गारंटी के रूप में देखा गया, ताकि वोटर फर्जी पहचान, दोहरी वोटिंग और मतदाता सूची में हेरफेर से बच सके। लेकिन हाल ही में सामने आए EPIC कार्डों में गड़बड़ियों और डुप्लीकेशन ने इस प्रणाली की साख को गहरी चोट पहुंचाई है।
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) द्वारा उजागर की गई 18 वोटर आईडी कार्डों में पिता और पति के नाम को “Father Father” और “Husband Husband” जैसे शब्दों से भरा गया था, जो या तो घोर लापरवाही या जानबूझकर की गई साजिश को दर्शाता है। इसके अलावा कुछ EPIC नंबर एक से ज्यादा राज्यों में पाए गए, जिससे इस सिस्टम की मूल अवधारणा ही संदिग्ध हो गई कि हर वोटर की एक ही यूनिक पहचान होगी।
TMC के सांसद साकेत गोखले और डेरेक ओ’ब्रायन ने आरोप लगाया कि भाजपा शासित राज्यों के वोटरों को विपक्षी दलों के गढ़ वाले राज्यों—जैसे पश्चिम बंगाल—की मतदाता सूची में शामिल किया जा रहा है। साथ ही, स्थानीय निवासियों के नाम बिना कारण के हटाए जा रहे हैं। कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने भी चिंता जताई कि ‘स्थायी रूप से प्रवासित’ (permanently migrated) का बहाना बनाकर मतदाताओं को सूची से हटाया जा रहा है, जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांत—निवास आधारित मतदान—का उल्लंघन है।
चुनाव आयोग (ECI) ने सफाई दी कि यह समस्या पूर्व-ERONET युग की है, जब राज्यों में EPIC नंबर स्थानीय स्तर पर बनाए जाते थे और उनका कोई राष्ट्रीय समन्वय नहीं था। हालांकि, यह तर्क विपक्ष को संतोषजनक नहीं लगा। उनका कहना है कि EPIC कार्ड का पूरा आधार ही यह था कि यह पासपोर्ट या वाहन रजिस्ट्रेशन नंबर की तरह विशिष्ट और एकमात्र हो।
इस विवाद को और हवा मिली जब राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव के पास दो EPIC कार्ड होने का मामला सामने आया। भाजपा ने इस पर कानूनी कार्रवाई की मांग की, लेकिन यह घटना सिर्फ किसी एक नेता की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की कमज़ोरियों को उजागर करती है।
विपक्ष का कहना है कि यह कोई तकनीकी गलती नहीं, बल्कि “Silent Invisible Rigging” (SIR)—चुपचाप और अदृश्य तरीके से धांधली—का एक नया रूप है। मतदाता सूची में गुपचुप तरीके से छेड़छाड़ कर विपक्षी वोट बैंक को खत्म करने और बाहरी मतदाताओं को जोड़ने की साजिश हो रही है।
तकनीक के स्तर पर भी चिंताएं बढ़ रही हैं। आधार-EPIC लिंक को डुप्लीकेट पहचान रोकने का उपाय बताया गया था, लेकिन आधार खुद निवास प्रमाण नहीं है और इसका डेटा भी कई बार संदिग्ध रहा है। इसके बावजूद सरकार EPIC प्रणाली को आधार से जोड़ने पर ज़ोर देती रही है, बिना यह तय किए कि इससे मतदाता की कानूनी और संवैधानिक पहचान सुरक्षित रह पाएगी या नहीं।
Form 6 के ज़रिए वोटर ID में बदलाव या सुधार करना भी एक लंबी और पेचीदा प्रक्रिया है। ग्रामीण और वंचित समुदायों के लिए यह प्रक्रिया और भी कठिन है, क्योंकि वे डिजिटल साक्षरता और दस्तावेज़ी ताकत से वंचित हैं। कई मामलों में ब्लॉक स्तर पर कार्यरत BLO (Booth Level Officer) भी सही जानकारी देने के बजाय लोगों से अनौपचारिक शुल्क मांगते हैं, जिससे नागरिक अधिकार एक सेवा के बजाय बाज़ार की वस्तु बन जाती है।
चुनाव आयोग का यह कहना कि वह तीन महीनों में सारी गड़बड़ियां सुधार लेगा, एक औपचारिक आश्वासन भर लगता है। ज़मीनी हकीकत यह है कि आयोग को राज्य प्रशासन पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे उसकी स्वायत्तता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
दूसरी ओर, सरकार की चुप्पी सबसे चिंताजनक पहलू है। जब देश के सबसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्थान—चुनाव आयोग—की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में हो, तो सरकार का चुप रहना सिर्फ उदासीनता नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही से मुँह मोड़ने जैसा है।
इस पूरे प्रकरण में जनता का विश्वास सबसे बड़ा शिकार बना है। यदि EPIC कार्ड, जो नागरिक के मतदान अधिकार का आधार है, ही संदिग्ध हो जाए, तो लोकतंत्र की जड़ें हिलती हैं। चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए तत्काल और गहन सुधार की आवश्यकता है।
निष्कर्षत: EPIC कार्ड का उद्देश्य लोगों को ताकत देना था, न कि भ्रमित करना। आज आवश्यकता है कि मतदाता पहचान प्रक्रिया को पारदर्शी, तकनीकी रूप से सुरक्षित, और संस्थागत रूप से जवाबदेह बनाया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक भारत का लोकतंत्र एक अदृश्य खतरे के साए में रहेगा।