लेखक: अमित पांडेय
“अब दोस्त कोई लाओ मुक़ाबिल में हमारे,
दुश्मन तो कोई क़द के बराबर नहीं निकला।”
— मुनव्वर राना
यह शेर आज के भारत पर कितना सटीक बैठता है, जहाँ हर्षवर्धन जैन और किरण भाई पटेल जैसे जालसाज़ न केवल कानून को धता बताते हैं, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढाँचे का मज़ाक भी उड़ाते हैं। ये घटनाएँ महज़ व्यक्तिगत लालच की कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि यह उस व्यवस्था की विफलता का आईना हैं जो अपनी आंखों के सामने हो रहे छल को भी नहीं पहचान पाती।
हर्षवर्धन जैन, जिसे 2011 में अवैध सैटेलाइट फोन रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, आठ साल तक दिल्ली के नज़दीक “वेस्टार्कटिका” जैसे काल्पनिक देश का फर्जी दूतावास चला रहा था। उसने नकली राजनयिक पासपोर्ट, कूटनीतिक नंबर प्लेट, जाली सरकारी दस्तावेज़, और प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के साथ फोटोशॉप की गई तस्वीरें इस्तेमाल कर लोगों को गुमराह किया। उससे जब STF ने जुलाई 2025 में गिरफ़्तार किया तो उसके पास से 44.7 लाख नकद, 12 जाली पासपोर्ट, 34 नकली सरकारी मुहरें, 34 देशों के फर्जी दस्तावेज़ और चार लग्जरी गाड़ियाँ बरामद हुईं। इतने बड़े पैमाने पर जालसाज़ी, और वह भी राष्ट्रीय राजधानी के पास, कैसे वर्षों तक प्रशासन की नज़रों से बची रही — यह सवाल सबसे अधिक चौंकाता है।
किरण भाई पटेल का मामला और भी विस्फोटक है। मार्च 2023 में श्रीनगर के एक पांच सितारा होटल से गिरफ्तार होने तक वह खुद को प्रधानमंत्री कार्यालय का “एडिशनल डायरेक्टर” बताकर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में ज़ी-प्लस सुरक्षा के साथ घूम रहा था। बुलेटप्रूफ गाड़ियाँ, सरकारी मेहमान नवाज़ी और हाई-प्रोफाइल बैठकों की तस्वीरें – सबकुछ उस झूठ की नींव पर टिका था, जिसे एक फोन कॉल से भी उजागर किया जा सकता था। फिर भी, किसी ने पुष्टि करने की आवश्यकता नहीं समझी।
इन दोनों मामलों में सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि इन जालसाज़ों ने ऐसा किया, बल्कि यह है कि कैसे इतने लंबे समय तक ऐसा कर सके? डिजिटल इंडिया, आधार, और रीयल-टाइम निगरानी जैसे तमाम दावों के बावजूद ऐसी घटनाएं प्रशासनिक अक्षमता की पोल खोलती हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र के पास संसाधन नहीं हैं, बल्कि उनका समन्वय और क्रियान्वयन ही बेहद लचर है।
हर्षवर्धन जैन की कहानी में फर्जी विदेश मंत्रालय के दस्तावेज़ और नकली पासपोर्टों का वर्षों तक उपयोग यह दिखाता है कि हमारी जांच प्रणाली या तो निष्क्रिय है या उदासीन। ज़रा सी सतर्कता, आधार सत्यापन या किसी डिजिटल डाटाबेस से मिलान, इस पूरे फर्जीवाड़े को बहुत पहले ही रोक सकता था। उसी प्रकार, किरण पटेल को मिली ज़ी-प्लस सुरक्षा के पीछे केंद्रीय एजेंसियाँ, स्थानीय पुलिस और खुफिया तंत्र जैसे कई स्तरीय सुरक्षा प्रोटोकॉल होते हैं। फिर भी, किसी ने एक बार भी PMO से उनके पद की पुष्टि नहीं की — यह लापरवाही नहीं, प्रणालीगत असफलता है।
इससे भी दुखद यह है कि भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित होती है। जब कोई व्यक्ति खुद को विदेश सेवा अधिकारी बताकर नकली मुहरों से लोगों को ठगता है, तो वह केवल देशवासियों को नहीं, बल्कि भारत की विदेश नीति, सुरक्षा व्यवस्था और वैश्विक साख को भी चोट पहुँचाता है।
इन घटनाओं से सबक लेने और सुधार की आवश्यकता है। सबसे पहले, सत्यापन प्रणाली को अधिक सशक्त और केंद्रीकृत बनाना होगा। आधार, बायोमेट्रिक और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकों का उपयोग उच्च-स्तरीय पदों के सत्यापन के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरी बात, सभी एजेंसियों — जैसे कि MEA, PMO, पुलिस, खुफिया इकाइयाँ, और आर्थिक अपराध शाखाओं — के बीच वास्तविक समय में डेटा साझा करने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे ऐसे मामलों को शुरुआती चरण में ही पकड़ा जा सके।
तीसरी आवश्यकता है जनजागरूकता की। सोशल मीडिया पर तस्वीरें, महंगी गाड़ियाँ और नकली रुतबे का असर आम जनता पर न हो, इसके लिए डिजिटल साक्षरता और फर्जीवाड़ा पहचानने की जानकारी फैलानी होगी। जनता को दिखावे से परे सोचने की आदत डालनी होगी।
चौथा, जो अधिकारी ऐसे मामलों में लापरवाही करते हैं, उन्हें जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। हर्षवर्धन जैन के मामले में RTO और MEA के किन-किन अधिकारियों ने अनदेखी की, और किरण पटेल को सुरक्षा मुहैया कराने वाले पुलिस अधिकारी कौन थे — इन सभी की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।
अंततः, ऐसे हाई-प्रोफाइल फर्जीवाड़ा मामलों के लिए तेज़ न्यायिक प्रक्रिया आवश्यक है। जब तक न्याय प्रक्रिया लंबी और धीमी रहेगी, तब तक ऐसे मामलों से कोई सीख नहीं ली जाएगी और न ही कोई सुधार होगा।
यह आवश्यक है कि सरकार इन घटनाओं को केवल शर्मिंदगी समझकर नजरअंदाज न करे, बल्कि इन्हें उस टूटती हुई व्यवस्था के संकेतक माने जिसमें दिखावे को सच्चाई समझ लिया जाता है। अगर हम अब भी नहीं चेते, तो अगला जैन या पटेल किसी बड़ी संस्था में सेंध लगाएगा, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालेगा, और जनविश्वास की नींव को और कमजोर करेगा।
भारत को यह तय करना होगा कि वह दिखावे की प्रशासनिक व्यवस्था से बाहर निकलेगा या फिर इसी छल के रंगमंच में उलझा रहेगा — जहाँ झूठी वर्दियाँ और फर्जी मुहरें असली शक्ति बन बैठती हैं।