अमित पांडे: संपादक
भारत की अर्थव्यवस्था 2025 में ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ एक ओर संरचनात्मक सुधारों के चलते घरेलू स्तर पर आशावाद दिख रहा है, तो दूसरी ओर वैश्विक व्यापारिक परिदृश्य में अनिश्चितताओं ने चिंताएँ गहरा दी हैं। सितंबर 2025 की मासिक आर्थिक समीक्षा में वित्त मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि सरकार द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदम भारत को वैश्विक अस्थिरताओं से बचाव की ढाल प्रदान कर रहे हैं। लेकिन मंत्रालय ने यह भी स्वीकार किया कि बाहरी जोखिमों की उपेक्षा करना घातक हो सकता है।
सबसे बड़ा खतरा भारत के सेवा क्षेत्र पर मंडरा रहा है, जिसे अब तक अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता रहा। अमेरिका द्वारा H1B वीज़ा शुल्क में वृद्धि इसी खतरे का ताजा उदाहरण है। उद्योग विश्लेषकों का मानना है कि इससे भारतीय आईटी और सेवा क्षेत्र पर सीधा बोझ पड़ेगा। 2024-25 में भारत का सेवा निर्यात 340 अरब डॉलर तक पहुँचा था, जिसमें से लगभग 60% हिस्सा अमेरिका और यूरोप के बाज़ारों से आता है। यदि इन सेवाओं की लागत बढ़ती है, तो यह प्रतिस्पर्धा को कमजोर करेगा और घरेलू रोजगार तथा आय पर नकारात्मक असर डालेगा।
वित्त मंत्रालय ने सही चेतावनी दी है कि बाहरी झटके केवल निर्यात तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे रोजगार, उपभोग और निवेश की श्रृंखला पर भी चोट करते हैं। 2022-23 के बाद से भारत की बेरोजगारी दर लगातार 7-8% के बीच बनी हुई है (CMIE डेटा), ऐसे में यदि निर्यात-आधारित क्षेत्रों में गिरावट आती है तो यह दर और अधिक बढ़ सकती है।
ऐसे जोखिमों के बीच जीएसटी दरों का पुनर्संरचनात्मक संशोधन सरकार की रणनीतिक पहल है। वित्त मंत्रालय ने बताया कि हालिया जीएसटी कटौती मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और मांग को प्रोत्साहित करने में सहायक होगी। उपभोक्ता वस्तुओं जैसे दूध, रोटी, पनीर, दवाइयाँ और स्वास्थ्य बीमा को 5% या शून्य कर श्रेणी में लाना आम जनता को तत्काल राहत देने वाला कदम है।
साथ ही, सीमेंट, दोपहिया वाहन और छोटे कारों पर कर में कटौती से निर्माण और ऑटोमोबाइल सेक्टर में मांग बढ़ेगी। ध्यान देने योग्य है कि भारत में 40% से अधिक रोजगार निर्माण और छोटे उद्योगों से जुड़ा है। इसलिए यदि इन क्षेत्रों में मांग बढ़ती है तो इसका प्रत्यक्ष असर रोजगार सृजन और ग्रामीण आय पर होगा।
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के अनुमानों के अनुसार, यदि जीएसटी कटौती से घरेलू खपत में 1% की भी बढ़ोतरी होती है तो सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 0.3 से 0.5% तक की अतिरिक्त वृद्धि संभव है। इससे यह स्पष्ट है कि यह कदम केवल कर राहत नहीं, बल्कि आर्थिक गति को पुनर्जीवित करने का प्रयास है।
वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत आयकर में प्रस्तावित संशोधन से करदाताओं को राहत मिलेगी और निवेश वातावरण सुधरेगा। उदाहरणस्वरूप, व्यक्तिगत करदाताओं को अधिक डिस्पोज़ेबल आय उपलब्ध होगी, जिससे खपत बढ़ेगी। दूसरी ओर, कॉर्पोरेट कर में राहत से कंपनियों की लाभप्रदता और निवेश प्रवृत्ति मजबूत होगी।
यह नीति विशेष रूप से भारत की युवा आबादी, स्टार्टअप्स और MSMEs को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। भारत में लगभग 63 मिलियन MSMEs हैं जो GDP में 30% और निर्यात में 45% का योगदान देते हैं। यदि इन पर कर बोझ कम होता है, तो यह न केवल नवाचार और उद्यमिता को प्रोत्साहित करेगा बल्कि ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में भी रोजगार बढ़ाएगा।
विशेष उल्लेखनीय है कि चमड़ा, हस्तशिल्प, खिलौने, फिटनेस सेंटर और शिक्षा सामग्री जैसे क्षेत्रों में कर में कटौती युवाओं और नई उद्यमशीलता के लिए बड़ा अवसर लेकर आई है। यह बदलाव जीवनयापन की लागत को भी कम करेगा और घरेलू मांग को मजबूत करेगा।
फिर भी वित्त मंत्रालय ने चेताया है कि सुधारों के बावजूद भारत के लिए आत्मसंतोष का समय नहीं है। वैश्विक बाजार में तेल की कीमतों की अस्थिरता, आपूर्ति श्रृंखला में बाधाएँ और भू-राजनीतिक तनाव अभी भी गंभीर जोखिम बने हुए हैं। IMF ने हाल ही में अनुमान लगाया कि यदि वैश्विक व्यापार में 1% की गिरावट आती है तो भारत जैसे उभरते देशों की वृद्धि दर पर इसका सीधा असर पड़ सकता है।
इसीलिए रिपोर्ट में ज़ोर दिया गया है कि भारत को अपनी आर्थिक कूटनीति को लचीला और अनुकूल बनाए रखना होगा। इसका अर्थ है कि व्यापार समझौतों, निर्यात विविधीकरण और प्रौद्योगिकी सहयोग में भारत को सक्रिय भूमिका निभानी होगी। साथ ही, घरेलू नीतियों को इस तरह तैयार करना होगा कि वे वैश्विक अस्थिरताओं से बचाव की ढाल बन सकें।
सितंबर 2025 की समीक्षा इस तथ्य को पुष्ट करती है कि भारत की अर्थव्यवस्था सुधारों के सहारे मजबूती की ओर बढ़ रही है, लेकिन वैश्विक व्यापारिक जोखिम इसकी राह में बाधक बने हुए हैं। जीएसटी पुनर्संरचना और कर सुधार निश्चित रूप से उपभोग और निवेश को बल देंगे, परंतु उनकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि भारत कितनी कुशलता से वैश्विक चुनौतियों का सामना करता है।
सरकार की सुधार-प्रधान नीति केवल कर ढांचे को आसान बनाने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह एक दीर्घकालिक रणनीति है जो समावेशी विकास, रोजगार सृजन और आत्मनिर्भरता की दिशा में निर्णायक कदम साबित हो सकती है। किंतु यह तभी संभव है जब भारत आंतरिक सुधारों के साथ-साथ बाहरी जोखिमों पर भी सतत निगरानी रखे और अपनी कूटनीतिक क्षमता को आर्थिक सुरक्षा कवच में बदल सके।