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हरेला की हरियाली बनाम धूसर यथार्थ: उत्तराखंड की हरित रस्म और वन विनाश का अंतर्विरोध

News Desk by News Desk
July 16, 2025
in देश
हरेला की हरियाली बनाम धूसर यथार्थ: उत्तराखंड की हरित रस्म और वन विनाश का अंतर्विरोध
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लेखक: अमित पांडेय

“मैं मनुष्य से कम, प्रकृति से अधिक प्रेम करता हूं…” — लॉर्ड बायरन
“पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश…” — सुमित्रानंदन पंत

ये पंक्तियाँ अलग युगों और भाषाओं से होकर भी उत्तराखंड की आत्मा को समेटती हैं—देवभूमि, जो अब अपने ही हाथों से उजड़ती जा रही है। जुलाई की बौछारों के साथ जैसे ही कुमाऊँ और गढ़वाल की पहाड़ियों पर बादल घिरते हैं, लोग हरेला मनाने जुटते हैं—एक ऐसा पर्व जो कभी प्रकृति के प्रति गहन श्रद्धा का प्रतीक था। पर अब बीजों की पूजा के पीछे चुपचाप एक क्षरण चलता है—नीतियों का, जवाबदेही का, और स्वयं वनों का।

2025 में उत्तराखंड ने हरेला उत्सव को सरकारी अभियान के रूप में धूमधाम से मनाया। “एक पेड़ माँ के नाम” जैसे नारों के साथ पांच लाख पौधे लगाने का दावा किया गया। मंत्री, अफसर और स्कूली बच्चे गड्ढों और पौधों के पास फोटो खिंचवाते दिखे। लेकिन उसी सप्ताह उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को फटकार लगाई कि अवैध खनन, अतिक्रमण और वनों की कटाई पर मांगी गई रिपोर्ट अब तक नहीं सौंपी गई। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 11,800 हेक्टेयर से अधिक वनभूमि पर अतिक्रमण हो चुका है—कभी ज़मीन माफियाओं, कभी तथाकथित संतों और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त संस्थाओं द्वारा।

यह विरोधाभास चौंकाने वाला है। पंत की कविता जिस पर्वत को आत्म-चिंतनशील सौंदर्य में देखती थी, वह आज खुद पर चलते बुलडोज़र और नीतिगत विफलताओं का आईना बन गया है। बाजपुर और उधमसिंह नगर में नदियों की रेत का अवैध खनन खुलेआम हो रहा है, भले ही कोर्ट इसके खिलाफ निर्णय दे चुका हो। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 2025 रिपोर्ट के अनुसार 188 हेक्टेयर वन भूमि हाल ही में नष्ट हुई, अक्सर “विकास” या तीर्थ विस्तार के नाम पर। चार वर्षों में केवल 1400 हेक्टेयर भूमि को ही पुनः हरित किया जा सका—जो कुल नुकसान का 12% भी नहीं है।

हरेला, जो कभी कृषि जीवन की आशा की कोमल फुसफुसाहट थी, अब एक मंचीय अनुष्ठान बनती जा रही है—एक प्रतीकात्मक पट्टी, एक गहरे घाव पर। उत्तराखंड की SDC फाउंडेशन की UDAAI रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि भूस्खलन, बाढ़, जंगल की आग—इन सभी आपदाओं का सीधा संबंध पर्यावरणीय उल्लंघनों से है। वनविहीन ढलानों पर भूस्खलन, जलस्रोतों की क्षति, और धार्मिक स्थलों के विस्तार के नाम पर जंगलों की कटाई, इन सबका मूल्य स्थानीय समुदाय चुका रहा है।

प्रश्न यह है कि क्या यह परंपरा अब एक प्रतिरोध का रूप ले सकती है, या यह महज़ सरकारी हरा आवरण बनकर रह जाएगी, जबकि असल जमीन पर वन उजड़ते रहेंगे? जब तक नीति में वही गहराई नहीं आती जो कविता में है, जब तक पौधे वास्तव में संवारे नहीं जाते—हरेला सिर्फ एक श्रद्धांजलि बनकर रह जाएगा। हम प्रकृति से प्रेम तो कर सकते हैं, पर वह प्रेम व्यर्थ है यदि हम उसके क्षरण को अनदेखा करें।

हरेला एक प्राचीन पर्व है, जो मानसून के आगमन और बुवाई के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है। इसमें परिवार कुछ दिन पहले बास्केट में गेहूं, जौ या उड़द बोते हैं और हरेला के दिन उन अंकुरित पौधों को काटकर देवी-देवताओं और बड़ों को अर्पित किया जाता है। यह जीवन, उर्वरता और प्रकृति के साथ संतुलन का उत्सव है। लेकिन अब यही परंपरा सरकारी “हरित अभियान” का औजार बनती जा रही है। “एक पेड़ माँ के नाम” जैसी योजनाएं स्कूलों और सरकारी कार्यालयों में पौधरोपण को उत्सव का रूप देती हैं, परंतु इन पौधों का पालन-पोषण अक्सर नहीं हो पाता।

2024 में एक RTI के अनुसार हरेला के दौरान लगाए गए पौधों में से केवल 23% ही छह माह बाद जीवित पाए गए। बिना पानी की योजना, खराब मृदा चयन और देखरेख के अभाव में अधिकांश पौधे मर जाते हैं। कई बार गलत प्रजातियों के पौधे लगाए जाते हैं, जो स्थानीय जैव विविधता को नुकसान पहुंचाते हैं। यह सिर्फ लक्ष्यों को पूरा करने की दौड़ है, न कि टिकाऊ वन निर्माण की योजना।

उत्तराखंड ने 2025 के पहले छह महीनों में ही 998 हेक्टेयर वन भूमि खो दी है। पिछले दो दशकों में यह आंकड़ा 50,000 हेक्टेयर से अधिक है। इसके मुख्य कारण हैं—खनन (8,760 हेक्टेयर), सड़क और बांध निर्माण (7,539 हेक्टेयर), जल विद्युत परियोजनाएं (2,295 हेक्टेयर), और जंगल की आग, जिनमें से कई जानबूझकर लगाई जाती हैं ताकि भूमि को अतिक्रमण के लिए साफ किया जा सके। परिणामस्वरूप जल स्रोत सूखते हैं, भूस्खलन बढ़ते हैं, जैव विविधता घटती है, और स्थानीय जलवायु बदलती है।

हरिद्वार, नैनीताल, देहरादून जैसे जिलों में अवैध खनन व्यापक है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 2025 में खुद स्वीकारा कि खनन माफियाओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। गंगा और गौला जैसी नदियों के तटों पर रेत और बोल्डर का दोहन एक आम बात हो गई है। इन खननों से नदियों का तल अस्थिर होता है, जलग्रहण क्षेत्र सिकुड़ता है, और वन्यजीवों के मार्ग कटते हैं। इससे सबसे अधिक नुकसान आदिवासी समुदायों और किसानों को होता है।

सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति तब दिखती है जब धार्मिक संस्थानों और राजनीतिक हस्तियों द्वारा वन भूमि पर कब्जा कर लिया जाता है। वन विभाग की जांचों से स्पष्ट हुआ कि कई एकड़ संरक्षित भूमि पर अवैध आश्रम बन चुके हैं, जिनके पास वैध भूमि अधिकार नहीं हैं। जिन प्रशासनिक इकाइयों की सक्रियता झुग्गीवासियों को हटाने में दिखती है, वही संस्थागत अतिक्रमण पर मौन रहती हैं।

यह स्थिति उन मूल्यों का उपहास है, जिनका दावा हरेला करता है—समानता, संतुलन और साझी प्रकृति रक्षा। एक सामाजिक कार्यकर्ता ने सटीक कहा, “ईश्वर के नाम पर जंगल काटे जाते हैं, फिर परंपरा के नाम पर पौधे लगाए जाते हैं। यह आस्था नहीं, छल है।”

2025 में भी 16 जुलाई को हरेला फिर मनाया जाएगा। लाखों पौधे लगेंगे, हरे अंकुर कानों पर सजेंगे, और प्रकृति रक्षा की कसमें खाई जाएंगी। लेकिन जब तक यह कसमें नीति सुधार और कानून पालन के साथ नहीं निभाई जाएंगी, तब तक यह पर्व खोखला होता रहेगा—एक ऐसे राज्य में जहां वन सिसकते हैं और नदियाँ रेत के लिए उजाड़ी जाती हैं।

हमें खुद से यह पूछना होगा—क्या हम प्रकृति का उत्सव मना रहे हैं या उसका क्रियाकर्म?

उत्तराखंड आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां एक रास्ता है—जलवायु अनुकूलन, सामुदायिक संरक्षण और जैविक विरासत का पुनरुद्धार। और दूसरा रास्ता है—निर्जन पहाड़, जलमग्न घाटियां, और ऐसे पर्व जिनके पास अब कोई जंगल नहीं बचे होंगे।

हरेला एक अंत नहीं, एक आरंभ बने—यही समय की पुकार है।

Tags: CAG ReportClimate Crisis IndiaDehradun Forest LossEcological DamageEnvironmental CrisisForest DestructionHarela ParvIllegal MiningNainital EcologyPolicy FailureReligious EncroachmentRiver Sand MiningSDC FoundationSustainable DevelopmentTree Plantation ScamUttarakhandUttarakhand Green FestivalVan PalayanVan Vinaash
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