अमित सिंह
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा हाल ही में हिजाब या बुर्का को लेकर दिए गए संकेतों ने एक बार फिर उस बहस को हवा दे दी है, जो भारत में हर कुछ महीनों में लौट आती है—महिलाओं की पोशाक, उनकी स्वतंत्रता, और राजनीति का हस्तक्षेप। यह बहस जितनी सतही दिखती है, उतनी ही गहरी है; और जितनी राजनीतिक है, उतनी ही सामाजिक भी। सवाल यह नहीं कि कोई क्या पहनता है, बल्कि यह कि सत्ता किस हद तक समाज की निजी पसंदों को नियंत्रित करने की कोशिश करती है। और यह भी कि क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ पहचान, धर्म और स्त्री स्वतंत्रता को राजनीतिक लाभ के लिए मोहरा बनाया जाता है।
नीतीश कुमार का यह कदम ऐसे समय आया है जब बिहार की राजनीति पहले से ही अस्थिरता, गठबंधन बदलाव और वैचारिक उलझनों से भरी हुई है। ऐसे में हिजाब बुर्का जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बयान देना केवल सामाजिक विमर्श नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत भी है। यह समझना जरूरी है कि भारत में हिजाब या बुर्का पहनना कोई नया चलन नहीं है; यह सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक धार्मिक परंपरा का हिस्सा है। लेकिन जब राजनीति इस पर टिप्पणी करती है, तो वह परंपरा अचानक विवाद बन जाती है। यह वही राजनीति है जो कभी महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर उनके कपड़ों पर सवाल उठाती है, कभी संस्कृति के नाम पर उनके अधिकार सीमित करती है, और कभी धर्म के नाम पर उन्हें पहचान की लड़ाई में धकेल देती है।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो हिजाब बुर्का का सवाल केवल धर्म का नहीं, बल्कि agency का है—महिलाओं की अपनी पसंद का। क्या वे इसे अपनी इच्छा से पहनती हैं, या सामाजिक दबाव से? क्या राज्य को यह तय करने का अधिकार है कि कोई महिला क्या पहने? और क्या राजनीति को यह अधिकार है कि वह महिलाओं की पोशाक को वोट बैंक की रणनीति में बदल दे? यह बहस तभी सार्थक होगी जब हम इसे महिलाओं की स्वतंत्रता के संदर्भ में देखें, न कि धार्मिक पहचान के चश्मे से।
नीतीश कुमार का बयान इसीलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ सामाजिक आर्थिक चुनौतियाँ पहले से ही गहरी हैं—शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा, सब कुछ सुधार की मांग करता है। ऐसे में हिजाब बुर्का पर बहस खड़ी करना यह संकेत देता है कि राजनीतिक विमर्श असली मुद्दों से भटक रहा है। यह वही पैटर्न है जो देश के कई हिस्सों में देखा गया है—जहाँ बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को पीछे धकेलकर पहचान आधारित बहसों को आगे कर दिया जाता है। यह रणनीति अल्पकालिक राजनीतिक लाभ दे सकती है, लेकिन समाज को दीर्घकालिक नुकसान पहुँचाती है।
यह भी सच है कि समाज में एक वर्ग ऐसा है जो हिजाब बुर्का को महिलाओं की स्वतंत्रता के खिलाफ मानता है। लेकिन उतना ही बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो इसे अपनी धार्मिक पहचान और गरिमा का हिस्सा मानता है। लोकतंत्र का अर्थ ही यही है कि दोनों दृष्टिकोणों को सम्मान मिले, और राज्य किसी एक को थोपने की कोशिश न करे। भारत का संविधान हर नागरिक को अपनी पोशाक, अपनी आस्था और अपनी पहचान चुनने का अधिकार देता है। यह अधिकार तभी सुरक्षित रहता है जब राजनीति इसे छूने से पहले सावधानी बरते।
समाज को यह समझना होगा कि हिजाब बुर्का पर बहस केवल मुस्लिम महिलाओं की नहीं है; यह हर उस महिला की बहस है जो अपने शरीर और अपनी पहचान पर नियंत्रण चाहती है। आज यदि राजनीति किसी एक समुदाय की पोशाक पर सवाल उठा सकती है, तो कल किसी दूसरे समुदाय की परंपराओं पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। यह slippery slope है—जहाँ एक बार राज्य को यह अधिकार मिल गया कि वह तय करे कि कौन क्या पहने, तो फिर स्वतंत्रता का दायरा धीरे धीरे सिकुड़ता जाता है।
इसलिए यह क्षण केवल बिहार की राजनीति का नहीं, बल्कि भारतीय समाज की परिपक्वता का भी परीक्षण है। क्या हम एक ऐसे समाज बनना चाहते हैं जहाँ विविधता को सम्मान मिले, या एक ऐसा समाज जहाँ पहचानें राजनीतिक हथियार बन जाएँ? क्या हम महिलाओं की स्वतंत्रता को मजबूत करना चाहते हैं, या उसे बहसों और प्रतिबंधों के बीच कमजोर होने देना चाहते हैं? और क्या हम राजनीति से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह असली मुद्दों पर काम करे, या हम खुद भी पहचान आधारित बहसों में उलझकर उसे प्रोत्साहित करते हैं?
नीतीश कुमार के बयान ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि राजनीति समाज को दिशा भी दे सकती है और भ्रमित भी कर सकती है। अब यह समाज पर निर्भर है कि वह किस दिशा को चुनता है। हिजाब बुर्का पहनना किसी की व्यक्तिगत पसंद है—और लोकतंत्र का अर्थ ही यही है कि व्यक्तिगत पसंदों को सम्मान मिले, न कि राजनीतिक व्याख्याओं से नियंत्रित किया जाए। यदि हम सच में एक प्रगतिशील समाज बनना चाहते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपनी पसंद की रक्षा करना नहीं, बल्कि दूसरों की पसंद का सम्मान करना भी है।







