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Home संपादकीय

आम आदमी का सुनहरा सपना अब बन गया है एक दुःस्वप्न

News Desk by News Desk
October 4, 2025
in संपादकीय
आम आदमी का सुनहरा सपना अब बन गया है एक दुःस्वप्न
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अमित पांडे: संपादक

“हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती।” यह कहावत आज के भारत में बड़ी विडंबना के साथ सच लगती है—एक ऐसा देश जो पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना दिखा रहा है, लेकिन जहाँ आम नागरिक उस धातु को खरीदने में असमर्थ हो गए हैं जो सदियों से समृद्धि और आस्था का प्रतीक रही है। भारत में सोना कभी महज़ एक वस्तु नहीं रहा—यह भावना, परंपरा और सुरक्षा का प्रतीक रहा है। दुल्हन के आभूषणों से लेकर तिरुपति बालाजी और केदारनाथ के स्वर्ण चढ़ावे तक, सोना भारतीय जीवन में सम्मान और भक्ति दोनों को परिभाषित करता है। मगर अब यही प्रतीक मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए चिंता का कारण बन गया है, क्योंकि इसकी कीमतें आम पहुँच से बाहर जा चुकी हैं।


आँकड़े भावनाओं से ज़्यादा मुखर हैं। 2015 से 2025 के बीच भारत में सोने की कीमतों में 147% की वृद्धि हुई है, जबकि अमेरिका में यह बढ़ोतरी 46% और यूरोप में मात्र 28% रही। सवाल यह है कि भारत में यह असाधारण वृद्धि क्यों हुई? क्या सरकार की नीतियाँ विफल रहीं, क्या बुलियन बाज़ार में असीम सट्टेबाज़ी है, या फिर अर्थव्यवस्था के भीतर अस्थिरता के संकेत हैं जिन्हें ऊँचे सेंसेक्स और निफ्टी के आँकड़े छिपा रहे हैं?


भारत जैसे देश के लिए यह विरोधाभास असहज करने वाला है—एक ओर रिकॉर्ड तोड़ शेयर बाज़ार और मजबूत विदेशी मुद्रा भंडार की बातें हैं, दूसरी ओर सोना आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। जब निवेशक सोने को शेयरों या बांड्स से ज़्यादा सुरक्षित समझने लगते हैं, तो यह विश्वास के संकट का संकेत होता है—एक मौन स्वीकारोक्ति कि सरकारी नीतियाँ उनकी वास्तविक संपत्ति की रक्षा नहीं कर पाएंगी। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि भारत की अर्थव्यवस्था की चमक दरअसल एक भ्रम है, जो वास्तविकता को ढक रही है?


भारत में सोने की सांस्कृतिक भूमिका असंदिग्ध है। घरों से लेकर मंदिरों तक, यह आस्था और सुरक्षा दोनों का प्रतीक है। लेकिन आज यही स्वर्ण भावनाएँ आर्थिक कठिनाइयों से टकरा रही हैं। पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के दावे के बावजूद, अधिकांश भारतीयों के लिए सोना अब एक विलासिता बन गया है। इसका कारण सिर्फ़ वैश्विक प्रभाव नहीं, बल्कि घरेलू नीतियों की विफलता भी है। जहाँ अन्य देशों में कीमतें नियंत्रित रहीं, भारत में मुद्रास्फीति, रुपये की गिरावट और नीतिगत अस्थिरता ने सोने को आम आदमी की पहुँच से और दूर धकेल दिया।


सरकार की नीतियाँ इस संकट को सुलझाने के बजाय और उलझाती गईं। 2015 में शुरू की गई “सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड योजना” एक अच्छे विचार के रूप में आई थी—जिसमें लोगों को भौतिक सोना ख़रीदने की बजाय ब्याज सहित बांड में निवेश करने का विकल्प दिया गया था। लेकिन ब्याज दर घटाने और जटिल प्रक्रिया ने जनता का भरोसा तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि लोग फिर से भौतिक सोने की ओर लौटे, जिससे आयात बढ़ा और सरकार ने टैक्स और शुल्क लगाकर नियंत्रण की कोशिश की। पर इसका उल्टा असर हुआ—सोने की तस्करी में 33% की वृद्धि हुई और काला बाज़ार फैल गया।


यानी हर नीतिगत प्रयास असफल सिद्ध हुआ—न वैध बाज़ार स्थिर हो पाया, न लोगों का विश्वास लौटा। उधर, सेंसेक्स और निफ्टी के नए रिकॉर्ड आर्थिक ताकत का नहीं, बल्कि कुछ कॉर्पोरेट समूहों के लाभ का संकेत देते हैं। अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमणियन और प्रोफेसर आर. नागराज ने भी चेताया है कि भारत की आर्थिक वृद्धि “संरचनात्मक तनाव” से घिरी हुई है—जहाँ असमानता बढ़ रही है और आम जनता की क्रय शक्ति घट रही है।


वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत की स्थिति और विचित्र लगती है। अमेरिका और यूरोप ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखा, जबकि भारत में रुपये की कीमत पिछले दशक में 25% तक गिरी। यह सिर्फ़ बाज़ार की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि निवेशकों के विश्वास का संकट है। जब लोग शेयर या बांड छोड़कर सोने में निवेश करने लगें, तो यह सरकार की आर्थिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न है।


भारतीय समाज में सोने की ओर रुझान सिर्फ़ परंपरा नहीं, अब एक मनोवैज्ञानिक आश्रय है—जहाँ लोग अपने भविष्य की अस्थिरता से सुरक्षा ढूँढते हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि घरेलू बचत दर 2012 के 34% से घटकर 2025 में 29% पर आ गई है, जबकि घरेलू कर्ज़ 62% बढ़ गया है। ऐसे में, सोना आम लोगों के लिए एकमात्र भरोसेमंद संपत्ति बचा है—जो न सरकार की नीति से प्रभावित होती है, न बैंकिंग अस्थिरता से।


वहीं, चीन ने सोने के बाज़ार को नियंत्रित करने के लिए डिजिटल गोल्ड निवेश और कम कर नीति अपनाई है, जबकि अमेरिका और यूरोप अपने गोल्ड रिज़र्व को वित्तीय सुरक्षा के हिस्से के रूप में मज़बूती से सँभालते हैं। भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, इस क्षेत्र में रणनीतिक दृष्टि से पिछड़ा है।


इस स्थिति ने एक गहरा संदेश दिया है—जब किसी देश के नागरिक सोने को अपनी सबसे सुरक्षित मुद्रा मानने लगें, तो यह अर्थव्यवस्था के भरोसे पर प्रश्न है। पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का दावा तब बेमानी लगता है जब उसकी नींव आम नागरिकों की असुरक्षा और अविश्वास पर टिकी हो।


आज भारत की यह स्वर्ण-कथा एक मौन चेतावनी बन चुकी है। सरकार की नीतिगत विफलताएँ, मुद्रा अस्थिरता और बढ़ती असमानता मिलकर उस चमक को मद्धम कर रही हैं, जिस पर भारत गर्व करता है। जब तक सरकार इस असंतुलन को ठीक नहीं करती—मुद्रा स्थिरता, मुद्रास्फीति नियंत्रण और आम निवेशकों में विश्वास बहाली के ज़रिए—तब तक यह कहावत भारत की अर्थव्यवस्था पर लागू रहेगी: हर वह चीज़ जो चमकती है, वास्तव में सोना नहीं होती।

Tags: common manCommon Man EconomyEconomic Inequality IndiaGold Market 2025gold priceGold Price IndiaIndian economyIndian InflationinflationPolicy FailureRupee FallRupee ValueSovereign Gold Bond
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