अमित पांडेय
10 अक्टूबर 2025 को नई दिल्ली में आयोजित तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने भारत की आत्मा को झकझोर दिया। वजह बयान नहीं, बल्कि बहिष्कार था—इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में महिला पत्रकारों को प्रवेश से रोक दिया गया। यह दृश्य काबुल या कंधार का नहीं, बल्कि उस भारत का था जहाँ दुर्गा की पूजा होती है, सरस्वती को ज्ञान की देवी माना जाता है और लक्ष्मी समृद्धि का प्रतीक हैं। एक अतिथि के नाम पर अपने ही सांस्कृतिक मूल्यों को अपमानित होने देना केवल कूटनीतिक चूक नहीं, बल्कि सभ्यतागत पतन है।
भारत सदैव अपनी ‘अतिथि देवो भवः’ परंपरा पर गर्व करता आया है, परंतु अतिथि सत्कार और आत्मसमर्पण में फर्क होता है। जब कोई मेहमान हमारे मूल्यों का अपमान करे और हम मौन रहें, तो यह मेहमाननवाजी नहीं—कायरता है। सवाल यह नहीं कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान से संवाद रखना चाहिए या नहीं, सवाल यह है कि किस कीमत पर?
सरकार ने स्पष्टीकरण दिया कि उसका इस निर्णय से कोई लेना-देना नहीं। परंतु यह मुद्दा प्रोटोकॉल का नहीं, अस्मिता का है। भारत की सभ्यता स्त्री-सम्मान पर आधारित है, और यदि किसी विदेशी प्रतिनिधि को हमारी भूमि पर महिलाओं का अपमान करने की छूट दी जाती है, तो यह संकेत है कि आज की कूटनीति ‘धर्म’ और ‘गरिमा’ से ज़्यादा व्यापार और वोट की गणित से संचालित है।
इसी दौरान देश को ‘विकसित भारत 2047’ के सपने दिखाए जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि जो देश आज अपने मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता, वह 22 साल बाद किस नैतिक आधार पर विकसित कहलाएगा? जापान जैसे देश अपने अतिथियों को भी अपने नियमों के आगे झुकाते हैं, पर भारत में अब कोई भी बात संभव है—बस जवाब का वादा 2047 तक टाल दिया जाता है।
वास्तव में यह घटना एक बड़ी प्रवृत्ति की झलक है—भारत की विदेश नीति अब आत्मनिर्भरता की नहीं, बल्कि ‘आवश्यकताओं की दासता’ की दिशा में बढ़ रही है। अमेरिका के भारी टैरिफ, रूस से तेल खरीद और पश्चिमी दबावों ने भारत को ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहाँ हर कदम पर समझौता करना पड़ता है। अफगानिस्तान से संपर्क रखना व्यावहारिक हो सकता है, लेकिन तब जब वह मानवाधिकारों के साथ हो, न कि उनके खिलाफ।
पूर्व प्रेस काउंसिल प्रतिनिधि डॉ. बी.आर. गुप्ता ने इस घटना पर कहा—“जब कोई मेहमान हमारी धरती पर हमारी महिलाओं को अपमानित करे और हम चुप रहें, तो यह राष्ट्रीय आत्मसमर्पण है।” वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व अधिष्ठाता प्रो. एम.पी. सिंह ने तीखा प्रहार करते हुए कहा—“भारत के पास अब नीति नहीं, केवल ‘क्लेरिकल आज्ञापालन’ बचा है।” उन्होंने याद दिलाया कि 1952 में जब यूरोप की कई लोकतंत्रों में महिलाओं को मताधिकार नहीं मिला था, तब भारत उन्हें बराबरी दे चुका था—और आज वही भारत कट्टरपंथियों के आगे नतमस्तक है।
गांधी, नेहरू और लोहिया ने जिस नैतिक नेतृत्व की विरासत दी थी, वह अब नारों और विज्ञापनों में सिमट गई है। आज की विदेश नीति ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ के नाम पर वस्तुतः रणनीतिक विवशता का दस्तावेज बन चुकी है। देश के पास अब यह तय करने का समय है कि वह बाज़ार बनेगा या मार्गदर्शक—सौदे की भूमि बनेगा या सभ्यता की मशाल।
भारत की असली परीक्षा यह नहीं कि वह 2047 तक कितना विकसित होता है, बल्कि यह है कि तब तक क्या वह अपनी आत्मा को पहचानता रहेगा या नहीं। यदि भारत आज अपने मूल्यों की रक्षा नहीं करता, तो आने वाली पीढ़ियाँ उसे केवल ‘महान अर्थव्यवस्था’ नहीं, बल्कि ‘मूक सभ्यता’ कहेंगी।
सभ्यता तब बचती है जब राष्ट्र अपने मूल्यों पर टिके रहते हैं—और जब गरिमा के बदले सौदे करने लगते हैं, तो इतिहास उन्हें समृद्ध नहीं, शर्मिंदा याद रखता है।