लेखक: अमित पांडेय
भारत का चुनाव आयोग, जिसे कभी लोकतंत्र की निष्पक्षता और पारदर्शिता की मिसाल माना जाता था, आज खुद ही संदेह के घेरे में है। राजनीतिक दलों, विशेषकर विपक्ष और नागरिक समाज के संगठनों ने आयोग पर पक्षपात, अक्षम कार्यप्रणाली और पारदर्शिता की कमी जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं। 2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से लेकर 2025 के बिहार चुनावों तक, ईवीएम की विश्वसनीयता और मतदाता सूची में हो रहे संशोधनों ने चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं।
महाराष्ट्र में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आश्चर्य जताया कि केवल पाँच महीनों में 39 लाख नए मतदाता सूची में कैसे जुड़ गए, जबकि पिछले पाँच वर्षों में इतने नाम नहीं जोड़े गए थे। उन्होंने इस वृद्धि की तुलना हिमाचल प्रदेश की पूरी मतदाता संख्या से करते हुए इसे सांख्यिकीय रूप से असंभव और राजनीतिक रूप से संदिग्ध बताया। उन्होंने विशेष रूप से नागपुर साउथ वेस्ट सीट का हवाला दिया, जहाँ मतदान प्रतिशत में अचानक 20 से 50 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई—यह सीट मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की है। इसके साथ ही, उन्होंने आरोप लगाया कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए गए या उन्हें बिना कारण दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया गया।
चुनाव आयोग से बार-बार यह मांग की गई कि वह मतदाता सूची की मशीन-रीडेबल डिजिटल प्रति और मतदान केंद्रों की सीसीटीवी फुटेज सार्वजनिक करे। लेकिन आयोग ने अब तक ऐसा नहीं किया। आयोग का यह कहना कि सभी बदलाव कानून के तहत हुए और सभी राजनीतिक दलों को ड्राफ्ट मतदाता सूची उपलब्ध कराई गई, जनता के मन में उठ रहे सवालों को शांत करने के लिए अपर्याप्त साबित हुआ है।
हरियाणा में भी इसी तरह की घटनाएं देखने को मिलीं। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि 20 से अधिक सीटों पर ईवीएम के डेटा और बैटरी स्तर में गंभीर विसंगतियाँ देखी गईं। उन्होंने कहा कि वोटों की गिनती में जानबूझकर देरी की गई। आयोग ने इन आरोपों को “बेबुनियाद” बताया, लेकिन विपक्ष ने इसे लेकर औपचारिक शिकायत दर्ज कराई और कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी।
बिहार में स्थिति और भी चिंताजनक हो गई, जब चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को विशेष सघन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) की घोषणा की। इसके तहत 2.93 करोड़ मतदाताओं को नए दस्तावेजों के साथ अपनी नागरिकता प्रमाणित करनी होगी। केवल वे 4.96 करोड़ मतदाता जो 2003 की सूची में पहले से मौजूद हैं, उन्हें फॉर्म भरकर पुनः सत्यापन कराना है। लेकिन बाकी लोगों को जन्म प्रमाण पत्र, मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट, जाति प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, जमीन के कागजात, परिवार रजिस्टर जैसे दस्तावेज दिखाने होंगे। यदि कोई मतदाता 2 दिसंबर 2004 के बाद जन्मा है, तो उसे अपने साथ-साथ माता-पिता के दस्तावेज भी देने होंगे। यदि माता-पिता विदेशी हैं, तो पासपोर्ट और वीजा की प्रति भी अनिवार्य है।
यह प्रक्रिया खासकर गरीब, ग्रामीण, वंचित और हाशिए पर मौजूद समुदायों के लिए भारी संकट लेकर आई है। भारत के ग्रामीण इलाकों में केवल 2.8 प्रतिशत लोगों के पास ही वैध जन्म प्रमाण पत्र है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के करोड़ों लोग ऐसे दस्तावेजों से वंचित हैं। ऐसे में चुनाव आयोग का यह कदम लाखों लोगों को मतदाता सूची से बाहर कर सकता है।
इस मुद्दे को लेकर बिहार में राजनीति गरमा गई है। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि वह गरीबों और अल्पसंख्यकों को वोट देने से रोकने के लिए चुनाव आयोग का उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने इसे “बैकडोर एनआरसी” करार दिया। एआईएमआईएम ने भी इस प्रक्रिया को अल्पसंख्यकों को वोटर लिस्ट से बाहर करने की साजिश बताया। ममता बनर्जी ने सवाल किया कि चुनाव आयोग ने इतने वर्षों तक कोई सघन पुनरीक्षण क्यों नहीं किया, और अब अचानक इतनी जल्दी क्यों दिखाई जा रही है?
आयोग का तर्क है कि यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 326 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 21(3) के अंतर्गत वैध है। उनका कहना है कि इससे अवैध प्रवासियों को हटाया जाएगा और मतदाता सूची को शुद्ध किया जाएगा। आयोग ने बूथ स्तर अधिकारियों की नियुक्ति, डिजिटल सबमिशन की सुविधा और पार्टी एजेंट्स की निगरानी को भी एक पारदर्शी प्रक्रिया के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है।
लेकिन विशेषज्ञों और नागरिक समाज का कहना है कि 7.89 करोड़ मतदाताओं की सूची का सत्यापन केवल 30 दिनों में करना न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि इससे व्यापक स्तर पर लोगों के मताधिकार छीने जा सकते हैं। खासकर वे लोग जिनके पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, इस प्रक्रिया से बाहर हो सकते हैं।
यह सिर्फ बिहार की बात नहीं है। यह भारत के लोकतंत्र की बुनियाद को हिला देने वाला संकट है। चुनाव आयोग, जो कभी निष्पक्षता की मिसाल हुआ करता था, अब सवालों के घेरे में है। सुप्रीम कोर्ट में ईवीएम की पारदर्शिता को लेकर दायर याचिकाएँ वर्षों से लंबित हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) जैसे संगठनों ने 100 प्रतिशत वीवीपैट मिलान की मांग की है, लेकिन इस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
सत्तारूढ़ भाजपा इन आरोपों को विपक्ष की “हार की हताशा” बताकर खारिज कर रही है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा, “जब आप जीतते हैं, तो सिस्टम ठीक है, जब हारते हैं, तो उसमें गड़बड़ी हो जाती है?” उनका दावा है कि जिन सीटों पर विपक्ष जीता है, वहाँ भी मतदान प्रतिशत में वृद्धि हुई थी, जिससे यह साबित होता है कि आरोप आधारहीन हैं।
लेकिन असली सवाल यह है कि चुनाव आयोग पारदर्शिता क्यों नहीं दिखा रहा? सीसीटीवी फुटेज, डिजिटल मतदाता सूची और फॉर्म-20 जैसे दस्तावेज स्वतः सार्वजनिक क्यों नहीं किए जाते? यदि आयोग पर से लोगों का विश्वास उठ गया, तो चुनाव सिर्फ एक औपचारिक प्रक्रिया बनकर रह जाएगा—लोकतंत्र का मर्म खत्म हो जाएगा।
आज चुनाव आयोग के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा है—वह किस रास्ते पर चलेगा? पारदर्शिता और जवाबदेही के रास्ते पर, या संदेह और अविश्वास के दलदल में?
क्योंकि लोकतंत्र में मत केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि नागरिक के अस्तित्व की मान्यता है। और जब उसे दस्तावेजों के बोझ में दबाकर छीना जाए, तो लोकतंत्र केवल एक दिखावा रह जाता है। चुनाव आयोग को अब अपने आचरण से यह साबित करना होगा कि वह न केवल निष्पक्ष है, बल्कि उसे निष्पक्ष दिखना भी आता है। यही भारत के लोकतंत्र की असली कसौटी है।