लेखक: अमित पांडेय
जगदीप धनखड़ की यात्रा, पश्चिम बंगाल के एक संघर्षशील राज्यपाल से भारत के उपराष्ट्रपति बनने तक, कभी शांतिपूर्ण नहीं रही। आलोचकों ने उनके राज्यपाल कार्यकाल को एक दीर्घकालिक “ऑडिशन” कहा, जो उन्हें राष्ट्रीय मंच की ओर ले जा रहा था। ममता बनर्जी के साथ उनके टकराव, विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में हस्तक्षेप, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रति उनके खुले समर्थन ने उनकी विचारधारा को स्पष्ट रूप से दर्शाया। वर्ष 2022 में उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर नियुक्त किया गया — यह जैसे उनके पक्ष में सत्ता द्वारा किया गया इनाम था।
पर क्या उन्होंने उस इनाम की कीमत को समझा?
उपराष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल विवादों से घिरा रहा। सुप्रीम कोर्ट के “बेसिक स्ट्रक्चर” सिद्धांत पर सवाल उठाना, विपक्षी सांसदों का बड़े पैमाने पर निलंबन — ऐसे कई घटनाक्रमों ने उन्हें आलोचकों की नज़रों में भाजपा के प्रवक्ता जैसा बना दिया। लेकिन सतह के नीचे एक और संघर्ष था — वह भूमिका जो संविधान ने उनसे अपेक्षित की थी और उनका अंतरात्मा, जो लगातार बेचैन होता गया।
21 जुलाई 2025 को धनखड़ का इस्तीफा केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं था। यह उस गहराई से आती दरार का प्रकटीकरण था जो भारत की संवैधानिक व्यवस्था में चुपचाप विकसित हो रही थी। स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया गया, लेकिन समय और संदर्भ ने संकेत दिया कि मामला केवल शारीरिक थकावट का नहीं था। संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन, उन्होंने राज्यसभा की कार्यवाही कुशलता से संचालित की और विपक्ष द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया — जो न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के महाभियोग से संबंधित था। यह प्रस्ताव लोकसभा के बजाय राज्यसभा में लाया गया, सरकार की योजना को दरकिनार करते हुए।
कुछ ही घंटों में, उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपना इस्तीफा सौंप दिया। यह कदम अचानक नहीं था, बल्कि सोच-समझकर उठाया गया प्रतीत होता है। कांग्रेस नेताओं, जैसे जयराम रमेश और विवेक तन्खा ने इस कदम को “स्वास्थ्य” से आगे जाकर “संवैधानिक असहजता” से जोड़कर देखा। सत्तारूढ़ दल की ओर से कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं आई, और प्रधानमंत्री मोदी का शांत, सीमित संदेश इस बात को और गहरा करता है कि यह एक सामान्य संक्रमण नहीं, बल्कि एक राजनीतिक टूटन थी।
यह एक प्रतीकात्मक क्षण था — राजनीति से परे, दार्शनिक स्तर पर। जैसे शेक्सपियर की नायिका लूक्रेसिया अपनी अंतिम घड़ी में कहती है:
“अपना सम्मान मैं कब्र को सौंप जाऊँगी,
और मेरे पतन से ही विजय का मार्ग प्रशस्त होगा।”
धनखड़ का इस्तीफा भी ऐसा ही प्रतीत होता है — हार नहीं, बल्कि अंतर्मन की पुकार। एक ऐसा निर्णय जो उन्हें पद की ऊंचाई से गिरा गया, लेकिन अंतःकरण की दृष्टि से ऊंचा उठा गया।
किसानों के मुद्दों पर उनके हस्तक्षेप ने इस अंतर्मन के विद्रोह को और स्पष्ट किया। 3 दिसंबर 2024 को मुंबई के एक ICAR कार्यक्रम में उन्होंने कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से सार्वजनिक रूप से पूछा:
“कृषि मंत्री जी, एक-एक पल आपके लिए महत्वपूर्ण है। कृपया बताएं, किसानों से जो वादा किया गया था, वह क्यों पूरा नहीं हुआ?”
यह कोई तैयार किया गया भाषण नहीं था। यह एक असामान्य आक्षेप था — उपराष्ट्रपति के स्तर से। उन्होंने चेतावनी दी कि किसानों की उपेक्षा केवल नीति विफलता नहीं, बल्कि आत्मा के साथ विश्वासघात है। 2014 के बाद घटती किसान आय और दिल्ली सीमा पर दोबारा उभरते आंदोलनों ने उनकी चिंताओं को और गहरा किया।
दूसरा मोड़ जुलाई 2025 में आया, जब उन्होंने उस समय राज्यसभा की अध्यक्षता की, जब लोकसभा में अफरा-तफरी थी। कृषि पर बहस की मांग को खारिज करते हुए सरकार ने सत्र स्थगित करवा दिया। धनखड़ चुप रहे, लेकिन यह चुप्पी रणनीतिक थी। बाद में उन्होंने विपक्ष द्वारा प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जो न्यायपालिका को लेकर था — और इसे राज्यसभा के माध्यम से पारित किया गया। यह एक संवैधानिक साहसिक कदम था, जिससे सरकार के स्थापित “नैरेटिव” को चुनौती मिली।
इस कदम के साथ ही, उनके इस्तीफे की घड़ी आ गई। न्यायपालिका में चल रहे घोटालों — विशेष रूप से न्यायमूर्ति शेखर यादव और वर्मा पर लगे आरोपों — को लेकर सरकार अपने विधेयक को आगे बढ़ाना चाहती थी, लेकिन धनखड़ ने उसकी योजना उलट दी। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की:
“संविधान, राष्ट्रपति से भी बड़ा है” — यह एक निर्णायक वक्तव्य था।
21 जुलाई को संसद में धनखड़ का अंतिम भाषण केवल विदाई नहीं, बल्कि एक चेतावनी थी। उन्होंने कहा:
“जीवंत लोकतंत्र में लगातार टकराव नहीं चल सकता। राजनीति का सार संवाद है, संघर्ष नहीं।”
उन्होंने एकदलीय वर्चस्व की प्रवृत्ति पर चिंता जताई, असहमति की गिरती जगह पर दुःख प्रकट किया और भारत की सभ्यतागत परंपरा — संवाद और विचार के आदान-प्रदान — को पुनः जीवित करने की अपील की।
और फिर, चुपचाप, वे राष्ट्रपति भवन पहुंचे और इस्तीफा सौंप दिया।
क्या यह अंतर्मन का विद्रोह था? एक रणनीतिक वापसी? या एक कवि की तरह की आत्मसमर्पण?
“निकलना ख़ुद से आदम का था सुना लेकिन,
बड़े बेआबरू हो के तेरे कूचे से हम निकले।”
धनखड़ का जाना केवल संवैधानिक प्रक्रिया नहीं था — वह एक आत्मचिंतन, एक प्रतिरोध, और एक चेतावनी थी। वे सत्ता की ऊंचाइयों पर पहुंचे, पर अंततः अपनी आत्मा की आवाज़ को चुना — और यहीं से उनका असली इतिहास शुरू होता है।