लेखक: अमित पांडे — संपादक कड़वा सत्य
इटावा, उत्तर प्रदेश के डंडारपुर गाँव में 21 जून 2025 को जो घटित हुआ, वह केवल दो व्यक्तियों के अपमान की कहानी नहीं है—वह हमारे समाज के गहरे और सड़ांध भरे ज़ख्म की परतें खोलने वाला क्षण था। कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहायक संत कुमार यादव को केवल इसलिए अपमानित किया गया, उनके सिर मुंडवाए गए, उनकी पूजा सामग्री तोड़ी गई, और उन पर मूत्र डाला गया—क्योंकि वे “यादव” थे। उनकी ‘भूल’ सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने ब्राह्मण-बहुल गाँव में भागवत कथा सुनाने का साहस किया।
इस बर्बर कृत्य का वीडियो अब देशभर में फैल चुका है, और इसके साथ ही फैल चुका है वह प्रश्न, जिससे हम बार-बार मुँह चुराते हैं—क्या वाकई हम एक आधुनिक, संवैधानिक, और समतावादी राष्ट्र हैं?
यह घटना कोई अपवाद नहीं है, यह एक आइना है—जिसमें भारत की जातीय सच्चाई बिना किसी सजावट के दिखती है। यह उस मानसिकता की अभिव्यक्ति है जो आज भी मानती है कि आध्यात्मिकता, धर्म और कथा कहने का अधिकार केवल कुछ “जन्मसिद्ध” जातियों तक सीमित है। लेकिन यह अधिकार किसने दिया? न संविधान ने, न वेदों ने, और न ही उन भगवानों ने जिनका नाम लेकर यह अन्याय किया गया।
श्रीकृष्ण स्वयं भगवद गीता (4.13) में कहते हैं:
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।”
अर्थात् वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म पर आधारित है, जन्म पर नहीं। यह कोई आधुनिक विचार नहीं है, यह हमारी सनातन परंपरा की मूल चेतना है।
इतिहास भी यही बताता है। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण नहीं थे—वे एक समय डाकू थे। महाभारत के रचयिता वेदव्यास, एक मछुआरिन की संतान थे। संत रविदास, जो चर्मकार थे, उनकी वाणी आज गुरु ग्रंथ साहिब में सम्मिलित है। यही नहीं, आदि शंकराचार्य को भी अपने समय की विदुषी उभय भारती से शास्त्रार्थ करना पड़ा, और उन्होंने नारी ज्ञान की श्रेष्ठता को स्वीकार किया।
फिर भी, आज 2025 में, एक यादव व्यक्ति को केवल इसलिए अपमानित किया जाता है क्योंकि वह भागवत कथा कहने का प्रयास करता है? जिस कथा में भगवान श्रीकृष्ण, जो स्वयं यादव कुल से थे, प्रेम, करुणा और समता का संदेश देते हैं—क्या वही कथा एक यादव नहीं सुना सकता?
स्पष्ट है कि जाति आज केवल धार्मिक विचार नहीं रह गई है—यह अब सामाजिक नियंत्रण, आर्थिक हित और राजनीतिक शक्ति का उपकरण बन चुकी है। मंदिर, कथा, धार्मिक आयोजन—ये केवल श्रद्धा के केंद्र नहीं हैं, ये शक्ति के प्रतीक हैं। इन पर कब्जा बनाए रखना उन वर्गों के लिए आवश्यक हो गया है जिनका अस्तित्व इसी असमानता पर टिका है। इसीलिए जब कोई वंचित वर्ग से आया व्यक्ति इन स्थलों में प्रवेश करता है, तो यह सत्ता के किले में सेंध लगता है—और प्रतिक्रिया होती है, क्रूर और अमानवीय।
लेकिन यह संघर्ष नया नहीं है। महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता को “हिंदू धर्म पर कलंक” कहा था। उन्होंने “हरिजन” शब्द गढ़ा, मंदिर प्रवेश आंदोलनों का नेतृत्व किया। लेकिन उनसे भी आगे, डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस अन्याय को प्रणालीगत रूप में समझा। उन्होंने 1927 में मनुस्मृति का दहन किया, महाड सत्याग्रह के ज़रिए पानी जैसे मूलभूत संसाधनों पर बराबरी का दावा किया, और अंततः भारत के संविधान के ज़रिए समानता को कानूनी रूप दिया।
फिर भी, जातीय अहंकार अब भी हमारी आत्मा को खा रहा है। 2022 की पीयू रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि 30% उच्च जाति के भारतीय आज भी दलितों के साथ घनिष्ठ संबंध नहीं रखना चाहते। इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट की रिपोर्ट कहती है कि आज भी लगभग 27% भारतीय किसी न किसी रूप में अस्पृश्यता का अभ्यास करते हैं।
यह वह सच्चाई है जो “विकसित भारत”, “डिजिटल इंडिया” और “AI भारत” जैसे नारों के पीछे छिपा दी जाती है। लेकिन यह छिपाने से नहीं मिटती।
अब समय आ गया है कि हम दो टूक निर्णय लें—धर्म केवल उनका नहीं हो सकता जो ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं। धर्म का अधिकार उन सभी का है जिनका हृदय पवित्र है, जिनके कर्म सत्यनिष्ठ हैं। अब हमें न केवल संवैधानिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर भी इस बदलाव की जरूरत है।
हमें समाज को यह समझाना होगा कि
“अहम् ब्रह्मास्मि”—मैं ब्रह्म हूँ, यह आत्मबोध हर आत्मा का अधिकार है—न कि केवल कुछ विशेष जातियों का।
हमें उस मानसिकता को चुप कराना होगा जो कथा सुनने से पहले जाति पूछती है।
हमें वह राष्ट्र बनाना होगा जहाँ किसी मुकुट मणि यादव को दोबारा अपमान का सामना न करना पड़े।
क्योंकि अंततः, जो राष्ट्र अपने सत्य को बोलने वालों की रक्षा नहीं कर सकता—वह उस सत्य के योग्य नहीं होता।
अब धर्म सबका हो।
अब गरिमा सभी की हो।
और न्याय—अभी शुरू हो।