अमित सिंह: संपादक कड़वा सत्य
मणिपुर में सशस्त्र जन मिलिशियाओं का उभार और सामान्यीकरण किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए गंभीर विकृति है। ये गैर-राज्य तत्व न केवल कानून के शासन को कमजोर करते हैं, बल्कि राज्य की वैधता को भी चुनौती देते हैं, क्योंकि ये जनता से संविधान से बाहर की निष्ठा की मांग करते हैं। इन सबके बीच, मणिपुर में चल रहे जातीय और राजनीतिक संकट के दौरान उभरा रैडिकल मीतेई संगठन ‘अरंबाई तेंगगोल’ सबसे चिंताजनक उदाहरण बनकर सामने आया है। इन सशस्त्र संगठनों का बढ़ता प्रभाव केवल एक स्थानीय कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राज्य की सत्ता, राजनीतिक नेतृत्व और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनता के विश्वास के ढह जाने का संकेत है।
हाल ही में अरंबाई तेंगगोल के एक प्रमुख नेता, असेम कानन सिंह, को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) द्वारा आपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इस गिरफ्तारी के बाद इंफाल घाटी में भारी जन असंतोष भड़क उठा। राष्ट्रीय राजमार्ग NH2, जो इंफाल को दीमापुर (नागालैंड) से जोड़ता है, को अवरुद्ध कर दिया गया और कई पुलिस थानों पर हमले की कोशिश की गई। इसके चलते पांच जिलों में कर्फ्यू और इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। यह प्रतिक्रिया केवल असहमति नहीं थी, बल्कि यह एक समानांतर सत्ता संरचना का प्रदर्शन था जो राज्य को चुनौती दे रही है।
इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इसके बाद अरंबाई तेंगगोल के 10 सदस्यों को बिना शर्त रिहा कर दिया गया। यह एक खतरनाक संदेश देता है: कि आज के मणिपुर में कानून को जनदबाव और भीड़ की धमकी से पलटा जा सकता है। राज्य, जो फरवरी 2025 से राष्ट्रपति शासन के अधीन है, अब शासन और नियंत्रण दोनों के मामले में अपनी पकड़ खोता दिख रहा है। चुनी हुई सरकार की बहाली में हो रही देरी को अब ऐसे कट्टरपंथी समूह अपनी उपस्थिति से भरने लगे हैं, जो लोकतांत्रिक तंत्र को ही चुनौती दे रहे हैं।
इस संकट के मूल में है राज्य और केंद्र की भाजपा सरकार की विफलता, जो दो साल से चले आ रहे जातीय संघर्ष का कोई स्थायी समाधान नहीं दे सकी है। ना ही शांति स्थापित की जा सकी, और ना ही सरकार निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका निभा सकी। इस असफलता के कारण ही अरंबाई तेंगगोल जैसे संगठनों को जनता के एक हिस्से का समर्थन मिला है। स्थिति इतनी विकृत हो चुकी है कि जनवरी 2024 में इस संगठन ने कांगला किले में मीतेई विधायकों को एक बैठक के लिए बुलाया — एक ऐसा कार्य जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सीधी अवहेलना है।
इसी प्रकार, कूकी समुदाय ने भी सशस्त्र प्रतिकार के समानांतर रूप खड़े किए हैं। हाल ही में तेंगनौपाल जिले में एक कूकी उग्रवादी नेता की गिरफ्तारी के बाद बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। दोनों समुदायों में सशस्त्र समर्थन का यह आपसी संतुलन बेहद खतरनाक है और मणिपुर को एक स्थायी अशांति की स्थिति में धकेल रहा है। अब यह केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं रह गई, बल्कि राज्य की वैधता का गहरा संकट बन चुकी है।
इन मिलिशियाओं की सार्वजनिक महिमा का उदय दो महत्वपूर्ण सच्चाइयों को उजागर करता है। पहली, यह कि जनता का राज्य की निष्पक्ष सुरक्षा व्यवस्था पर से विश्वास खत्म हो गया है। और दूसरी, यह कि राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाएं जो लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं, वे पूरी तरह निष्क्रिय और पक्षपाती हो गई हैं। इस शून्य में अब कट्टरपंथी ताकतें भराव कर रही हैं, जो समाज को हिंसा और विभाजन की ओर ले जा रही हैं।
लेकिन इस खतरनाक प्रवृत्ति को सहन नहीं किया जा सकता। कानून का शासन केवल एक वैधानिक औपचारिकता नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए वास्तविक अनुभव होना चाहिए। अरंबाई तेंगगोल और ऐसे अन्य सशस्त्र संगठनों को कानून के तहत लेकिन सख्ती से निष्क्रिय किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरे समुदायों को लक्षित किया जाए — इससे स्थिति और बिगड़ सकती है — बल्कि इन संगठनों की ताकत को योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया जाए। उनकी फंडिंग, भर्ती और रणनीति को तोड़ना जरूरी है।
साथ ही, राज्य की राजनीतिक प्रक्रिया की बहाली अब विलंबित नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रपति शासन एक अस्थायी प्रबंध है, लेकिन यह चुने हुए प्रतिनिधित्व का विकल्प नहीं हो सकता। निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव जल्द से जल्द कराए जाने चाहिए, और इसके लिए सिविल सोसाइटी तथा पर्यवेक्षकों की निगरानी जरूरी है। यही एकमात्र रास्ता है जिससे मणिपुर की टूटी सामाजिक एकता को दोबारा जोड़ा जा सकता है।
इसी के साथ, मीतेई और कूकी समुदायों के बीच फैली गहरी दरारों को पाटने के प्रयासों को दोगुना करना होगा। समुदाय-स्तरीय संवाद, आपसी सहयोग के अवसर और साझा आर्थिक कार्यक्रम इस दिशा में सहायक हो सकते हैं। केंद्र सरकार को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और संस्थागत स्तर पर मणिपुर के घावों को भरने में लगना होगा।
अंततः, अरंबाई तेंगगोल जैसे संगठनों की चुनौती केवल राज्य की सुरक्षा तक सीमित नहीं है — यह भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों पर सीधा हमला है। अगर सशस्त्र गिरोह निर्वाचित नेताओं से ज्यादा प्रभावशाली बन जाएं, तो यह लोकतंत्र के विघटन की सीधी चेतावनी है। केंद्र को अब निर्णायक कार्रवाई करनी होगी — केवल व्यवस्था नहीं, बल्कि उम्मीद और विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए। लोकतंत्र की रक्षा अब शब्दों से नहीं, संकल्प और कार्यवाही से होगी।