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सत्ता और पूंजी का गठजोड़: क्या मोदी-अडानी संबंध लोकतंत्र की कसौटी पर खरे उतरते हैं?

भारत की राजनीति में जब सत्ता और पूंजी का गठबंधन खुलकर सामने आता है, तो यह सिर्फ नीतिगत विमर्श नहीं रह जाता, बल्कि जनविश्वास, संस्थागत निष्पक्षता और लोकतंत्र की आत्मा पर एक सीधा सवाल बन जाता है।

News Desk by News Desk
June 15, 2025
in संपादकीय
सत्ता और पूंजी का गठजोड़: क्या मोदी-अडानी संबंध लोकतंत्र की कसौटी पर खरे उतरते हैं?
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अमित पांडे: संपादक कड़वा सत्य

भारत की राजनीति में जब सत्ता और पूंजी का गठबंधन खुलकर सामने आता है, तो यह सिर्फ नीतिगत विमर्श नहीं रह जाता, बल्कि जनविश्वास, संस्थागत निष्पक्षता और लोकतंत्र की आत्मा पर एक सीधा सवाल बन जाता है। हाल ही में कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उद्योगपति गौतम अडानी के बीच दशकों पुराने संबंध को वैश्विक संदर्भ में रखकर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और एलन मस्क के बीच चल रहे सोशल मीडिया टकराव को भारतीय संदर्भ में मोड़ते हुए कांग्रेस ने टिप्पणी की कि मस्क को भारत आकर मोदी और अडानी से ‘वफादारी’ का सबक लेना चाहिए। यह कथन एक व्यंग्यात्मक चुटकी से कहीं अधिक है—it’s a political cue to revisit an uncomfortable truth.

2002 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उसी समय से अडानी समूह का उत्थान एक विशेष गति पकड़ने लगा। विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) से लेकर बंदरगाह परियोजनाओं तक, अडानी समूह को नीति निर्माण की प्रक्रिया में सरकार की ‘सहजता’ मिलती रही। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस संबंध की प्रकृति और भी स्पष्ट हुई। एक ओर सरकार ने देश की रणनीतिक परिसंपत्तियों जैसे हवाई अड्डे, बंदरगाह और बिजली क्षेत्र को निजी हाथों में देने की प्रक्रिया तेज़ की, वहीं दूसरी ओर इन परिसंपत्तियों का बड़ा हिस्सा अडानी समूह को सौंपा गया। उदाहरण के तौर पर 2019 में जब भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (AAI) ने छह प्रमुख हवाई अड्डों के निजीकरण की घोषणा की, तो उनमें से सभी को अडानी समूह द्वारा संचालित किया जा रहा है—बिना किसी पूर्व अनुभव के बावजूद।

मोदी सरकार की विदेश यात्राएं और अडानी समूह की वैश्विक व्यापारिक गतिविधियाँ अक्सर समांतर चलती रही हैं। चाहे श्रीलंका में बंदरगाह परियोजना हो, इज़राइल में रक्षा समझौते हों या ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदान—प्रधानमंत्री की कूटनीतिक यात्राओं के बाद इन देशों में अडानी समूह की उपस्थिति बढ़ी है। क्या यह राष्ट्रहित में किए गए संयोग हैं या सत्ता संरक्षित विस्तारवाद? यह प्रश्न केवल विपक्ष का आरोप नहीं, बल्कि आम नागरिक की जिज्ञासा बन चुका है।

अडानी समूह की संपत्ति में जिस प्रकार से विस्फोटक वृद्धि हुई है, वह चौंकाती है। हुरुन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में गौतम अडानी की संपत्ति ₹29,500 करोड़ थी, जो 2022 में बढ़कर ₹10.5 लाख करोड़ हो गई—यानी लगभग 35 गुना वृद्धि। इसके पीछे केवल कॉर्पोरेट दक्षता को कारण मान लेना वास्तविकताओं की अनदेखी करना होगा। 2023 में अमेरिकी वित्तीय शोध संस्था Hindenburg Research ने अडानी समूह पर स्टॉक में हेराफेरी और अकाउंटिंग गड़बड़ियों के आरोप लगाए, जिसके बाद समूह के शेयरों में तेज़ गिरावट आई और अडानी समूह को एक दिन में ₹4 लाख करोड़ से ज़्यादा का नुकसान हुआ। लेकिन भारत सरकार की प्रतिक्रिया—या यूं कहें, चुप्पी—ने इस रिश्ते की स्वाभाविक निष्पक्षता पर और भी सवाल खड़े कर दिए।

इन सबके बीच चुनावी विमर्श में यह मुद्दा फिर उभरता है। 2014 के चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा अडानी समूह के चार्टर्ड विमान में यात्रा करना, या भाजपा के विज्ञापनों में अडानी समूह की छवि की समानांतर उपस्थिति—यह सब इस गठजोड़ की जनस्वीकृति का हिस्सा बन गया है। हालांकि भाजपा इन संबंधों को राष्ट्रनिर्माण और ‘Ease of Doing Business’ की दृष्टि से सही ठहराती है, लेकिन पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से यह तर्क अधूरा लगता है। भारत में पहले से ही 90% से अधिक कॉर्पोरेट फंडिंग गुमनाम इलेक्टोरल बॉन्ड्स के माध्यम से होती है, और जब इन्हें बड़े कॉर्पोरेट घरानों से जोड़कर देखा जाता है, तो सत्ता और पूंजी के एक दूसरे पर निर्भर होने की तस्वीर और भी स्पष्ट हो जाती है।

लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया का नाम नहीं है, बल्कि उसमें निहित है संस्थागत संतुलन, नीतिगत पारदर्शिता और नागरिकों के बीच समान अवसर। जब किसी एक कॉर्पोरेट समूह को नीति निर्माण, रणनीतिक संपत्तियों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इतनी बढ़त मिलती है कि वह पूरे उद्योग क्षेत्र पर प्रभाव डालने लगे, तो यह सिर्फ पूंजी का केंद्रीकरण नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक असंतुलन का संकेत है। यह जरूरी नहीं कि मोदी-अडानी संबंध अनैतिक हों, लेकिन जब वही संबंध लोकतंत्र की संस्थाओं को प्रभावित करने लगें, तब सवाल उठना स्वाभाविक है।

आज का भारत वैश्विक मंच पर एक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। ऐसे में यह अत्यंत आवश्यक है कि सत्ता और पूंजी के संबंधों की पारदर्शी जांच हो। क्या सरकारें जनहित में निर्णय ले रही हैं, या कॉर्पोरेट हितों के संरक्षण में? क्या नीति निर्माण सबके लिए समान है, या कुछ के लिए विशेष? यही प्रश्न लोकतंत्र की नींव को मजबूती देंगे। और यही कारण है कि कांग्रेस की हालिया टिप्पणी केवल तंज नहीं, बल्कि लोकतंत्र की कसौटी पर पूछे गए एक अत्यंत प्रासंगिक प्रश्न की शुरुआत है।

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