अमित पांडेय
भारत की विदेश नीति में हाल के वर्षों में तेजी से बदलाव देखने को मिला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश ने वैश्विक मंचों पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है, लेकिन साथ ही इस नीति की आलोचनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण आलोचना पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की ओर से आई है, जिन्होंने मोदी की विदेश नीति को ‘व्यक्तिगत नियंत्रण’ और ‘कूटनीतिक विफलता’ करार दिया है। इस लेख में हम इस बहस का विश्लेषण करेंगे कि क्या मोदी सरकार की विदेश नीति वाकई में भारत के व्यापक हितों को सही दिशा दे पा रही है या उसमें गम्भीर कमियां हैं।
यशवंत सिन्हा का कहना है कि मोदी ने विदेश नीति को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया है, जिससे विदेश मंत्रालय का महत्व घट गया है। इसके चलते नीति बनाने में विशेषज्ञों, कूटनीतिज्ञों और राजनीतिक समन्वय की भूमिका कम हो गई है।
व्यक्तिगत नियंत्रण से फैसले तेजी से हो सकते हैं, लेकिन जब यह केंद्रीकरण विशेषज्ञता और विपक्ष के समन्वय के बिना हो, तो नीति में व्यापक दृष्टिकोण की कमी रह जाती है। इसके नतीजे देश के हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जैसा कि पड़ोसी देशों के साथ बिगड़ते रिश्तों और अंतरराष्ट्रीय समर्थन की कमी से स्पष्ट होता है।
भारत की विदेश नीति में दक्षिण एशिया का विशेष स्थान है। यशवंत सिन्हा ने कहा कि मोदी सरकार के कार्यकाल में हमारे पड़ोसी देशों के साथ संबंध खराब हुए हैं। नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान के साथ संबंध तनावपूर्ण हैं।
यह तनाव केवल भारत की विदेश नीति की कमी नहीं, बल्कि पड़ोसी देशों की आंतरिक राजनीति और क्षेत्रीय विवादों का भी परिणाम है। लेकिन भारत को इस क्षेत्र में अधिक सक्रिय संवाद, सहयोग और आपसी विश्वास बढ़ाने की रणनीति अपनानी होगी। इसके बिना भारत के सुरक्षा और आर्थिक हित खतरे में रहेंगे।
मोदी सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे बड़े आर्थिक अभियान चलाए हैं और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए व्यापक प्रयास किए हैं। विदेश यात्रा के जरिए भारत ने कई आर्थिक समझौते किए हैं और रणनीतिक साझेदारी बनाई हैं।
फिर भी, यशवंत सिन्हा ने सवाल उठाया है कि इतने दौरे और खर्चों का वास्तविक लाभ क्या हुआ? IMF द्वारा पाकिस्तान को ऋण मिलने पर भारत को व्यापक समर्थन न मिलना यह दर्शाता है कि आर्थिक कूटनीति में भारत को और प्रभावशाली बनने की जरूरत है। इसके लिए निरंतर संवाद, राजनीतिक स्थिरता और कूटनीतिक कौशल आवश्यक हैं।
सिन्हा ने पुलवामा और पहलागाम हमलों के बाद भारत की सुरक्षा नीति और खुफिया तंत्र की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं। आतंकवाद से निपटने में प्रभावी कार्रवाई, हमलों के बाद की जांच और जवाबदेही कूटनीति का अहम हिस्सा है।
साथ ही, भारत-पाकिस्तान संघर्ष में युद्धविराम की घोषणा के तरीके और भारत की चुप्पी को लेकर भी उन्होंने असंतोष व्यक्त किया। यह दर्शाता है कि भारत की सुरक्षा और कूटनीतिक रणनीति में पारदर्शिता और सक्रिय संचार की कमी है, जो अंतरराष्ट्रीय समर्थन और भरोसे को प्रभावित करती है।
एक मजबूत विदेश नीति के लिए राजनीतिक एकजुटता और पारदर्शिता अनिवार्य है। सिन्हा ने अपने संसदीय अनुभवों का हवाला देते हुए बताया कि पहले राजनीतिक दलों के बीच संवाद और सहमति अधिक थी, जो कूटनीति को मजबूती देती थी।
आज का राजनीतिक माहौल अधिक संघर्षपूर्ण है, जिससे नीति निर्माण प्रभावित होता है। इसलिए, विदेश नीति में सुधार के लिए सरकार को विपक्ष, विशेषज्ञों और विभिन्न राजनीतिक दलों से संवाद स्थापित करना होगा।
यशवंत सिन्हा की आलोचना मोदी सरकार की विदेश नीति की वर्तमान स्थिति पर गंभीर सवाल उठाती है। व्यक्तिगत नियंत्रण और केंद्रीकरण से त्वरित निर्णय तो हो सकते हैं, लेकिन व्यापक राजनीतिक समन्वय, विशेषज्ञता, और पारदर्शिता के बिना नीति कमजोर पड़ जाती है।
भारत को क्षेत्रीय विवादों से निपटने, आर्थिक कूटनीति को सशक्त बनाने, और आतंकवाद के खिलाफ स्पष्ट रणनीति बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही, राजनीतिक सहमति और संवाद के माध्यम से विदेश नीति को देश के व्यापक हितों के अनुरूप बनाना होगा।
मोदी सरकार की विदेश नीति की सफलताएं भी कम नहीं हैं, लेकिन यशवंत सिन्हा की आवाज़ यह याद दिलाती है कि देश की कूटनीति को और अधिक समावेशी, रणनीतिक और पारदर्शी बनाना आवश्यक है, तभी भारत वैश्विक मंच पर अपने प्रभाव और साख को कायम रख सकेगा।
(लेखक, समाचीन विषयों के गहन अध्येता, युवा चिंतक व राष्ट्रीय-आंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं, रणनीति, रक्षा और तकनीकी नीतियों पर विशेष पकड़ रखते हैं।)