अमित पांडेय
22 अप्रैल 2025 को उत्तराखंड के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल नैनीताल में घटी एक हृदयविदारक घटना ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया। एक 12 वर्षीय नाबालिग बच्ची के साथ एक 73 वर्षीय वृद्ध मुस्लिम व्यक्ति द्वारा की गई यौन हिंसा ने समाज की संवेदनशीलता को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। यह घटना न केवल मानवीय दृष्टिकोण से पीड़ादायक थी, बल्कि इसके बाद जो सामाजिक प्रतिक्रिया सामने आई, वह कहीं अधिक चिंताजनक और समाज को विघटित करने वाली साबित हुई।
अपराधी को न्याय के कटघरे में खड़ा करने के बजाय, पूरा समुदाय आरोपों की लपट में झुलसने लगा। विभिन्न हिंदुत्ववादी संगठनों के आह्वान पर स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आए और मुस्लिम समुदाय के लोगों की दुकानों, घरों, मस्जिदों पर हमले होने लगे। एक व्यक्ति के जघन्य अपराध का बदला पूरे समुदाय से लिया जाने लगा। यह वह बिंदु था जहाँ समाज न्याय की राह से भटककर प्रतिशोध और सामूहिक दंड की खतरनाक दिशा में बढ़ गया।
जब किसी एक समुदाय के अपराध को उसके पूरे धर्म से जोड़कर देखा जाने लगे, तो यह सोच अत्यंत घातक बन जाती है। कोई भी अपराधी पहले अपराधी होता है, उसका धर्म बाद में आता है। अपराध का धर्म नहीं होता – न हत्या करने वाले का, न बलात्कारी का, न आतंकवादी का। लेकिन जब समाज उस अपराधी की पहचान को उसके धर्म से जोड़कर पूरे समुदाय को दोषी ठहराने लगता है, तो वहीं से सांप्रदायिकता की शुरुआत होती है।
इतिहास गवाह है कि सांप्रदायिक दंगे सिर्फ़ जान-माल का नुकसान नहीं करते, बल्कि पीढ़ियों तक चलने वाली नफ़रत छोड़ जाते हैं। 1947 का विभाजन हो, 1984 के सिख दंगे हों, 1992 के बाद बाबरी मस्जिद विवाद हो या 2002 का गुजरात दंगा – हर घटना ने देश की आत्मा को घायल किया है। ऐसी घटनाएँ यह दिखाती हैं कि जब धर्म को हिंसा का आधार बनाया जाता है, तो समाज का हर वर्ग पीड़ित बनता है – चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक।
घटना के अगले ही दिन पर्यटन स्थल मॉल रोड पर कुछ कश्मीरी व्यापारियों के साथ मारपीट कर उन्हें इलाके से खदेड़ दिया गया। उनका एकमात्र “अपराध” यह था कि वे उसी धर्म से संबंध रखते थे, जिससे आरोपी व्यक्ति का संबंध था। यह सोच, कि किसी एक व्यक्ति के कर्मों का बोझ पूरी कौम को उठाना पड़े, समाज के सामूहिक विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस घटना का प्रभाव अत्यंत नकारात्मक रहा। नैनीताल, उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है। एक अनुमान के अनुसार राज्य की जीडीपी में पर्यटन का हिस्सा 7.3% से अधिक है। नैनीताल जैसे पर्यटन स्थलों पर प्रतिवर्ष लाखों देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। लेकिन 22 अप्रैल की घटना के बाद एक सप्ताह के भीतर ही 70% से अधिक होटल बुकिंग रद्द कर दी गई। राज्य पर्यटन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, केवल नैनीताल क्षेत्र को 50 करोड़ रुपये से अधिक की सीधी आर्थिक क्षति हुई है। स्थानीय दुकानदार, टैक्सी ड्राइवर, होटल मालिक, और हस्तशिल्प विक्रेता जैसी बड़ी आबादी की आजीविका इस घटना से प्रभावित हुई है।
यह स्थिति सरकार और प्रशासन के लिए भी एक गंभीर चेतावनी है। यदि सांप्रदायिक तनाव और हिंसा इसी प्रकार बढ़ती रही, तो राज्य की समृद्धि पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। केवल नैनीताल ही नहीं, बल्कि पूरा उत्तराखंड इसकी चपेट में आ सकता है। शांति और सुरक्षा का वातावरण ही किसी पर्यटन स्थल की सबसे बड़ी पूंजी होती है। यदि वह डगमगाने लगे, तो आर्थिक बहिष्कार और सामाजिक अलगाव का भय सताने लगता है।
इस घटना पर विचार करते समय यह आवश्यक है कि हम अपराध और धर्म के बीच की रेखा को स्पष्ट समझें। अपराध का कोई धर्म नहीं होता। भारत के संविधान में “विधि के समक्ष समानता” का सिद्धांत निहित है। इसका तात्पर्य है कि अपराधी को उसकी जाति, धर्म या समुदाय से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से परिभाषित किया जाना चाहिए। जैसा कि मशहूर लेखक खालिद हुसैनी ने कहा था, “किसी इंसान का सबसे बड़ा अपराध यह नहीं कि वह बुरा है, बल्कि यह है कि वह न्याय की जगह नफरत को चुनता है।”
इस घटना के बाद उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी और दोषियों पर कार्रवाई की मांग की। परंतु प्रश्न यह है कि क्या प्रशासन केवल हिंसा के बाद कार्रवाई करेगा या पहले से रोकथाम की योजना भी बनाई जाएगी?
समाज के हर जिम्मेदार नागरिक की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह न केवल हिंसा का विरोध करे, बल्कि सांप्रदायिक मानसिकता से लड़ने के लिए भी खड़ा हो। आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा और संवाद की जो युवा पीढ़ी को धर्म के नाम पर नफरत नहीं, बल्कि न्याय और समानता का पाठ पढ़ाए।
यदि इस समय भी हमने आंखें मूंद लीं, तो न केवल नैनीताल जैसे पर्यटन स्थल बल्कि भारत का लोकतांत्रिक और बहुलतावादी ताना-बाना भी कमजोर पड़ जाएगा। हमें एकजुट होकर यह दिखाना होगा कि भारत का समाज अपराध का विरोध करता है, न कि धर्म विशेष का। और यही संदेश हमें इस त्रासदी से सीखकर आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए देना होगा।
क्योंकि जब धर्म न्याय की जगह ले लेता है, तब मानवता की हार निश्चित होती है। महात्मा गांधी ने कहा था, “धर्म का उपयोग यदि राजनीति में किया जाए, तो वह मानवता का सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।” गांधीजी का यह कथन आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। आज जरूरत है कि हम धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति और हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाएँ। समाज के हर व्यक्ति को यह समझने की जरूरत है कि हमारी असली पहचान हमारे कर्म, हमारे मूल्य और हमारी मानवता है – न कि हमारा धर्म।