सुर्खियों से हमेशा दूर रहने वाली मंजू सिन्हा को कभी किसी चमक धमक ने आकर्षित नहीं किया। एक शिक्षिका की क्या भूमिका होती है उसको बखूबी समझती थी। 24 नवंबर, 2005 को पटना का गांधी मैदान लोगों से खचाखच भरा हुआ था। लोगों के लिए उम्मीद की नई सुबह हुई थी। सबके मन में नीतीश कुमार के प्रति उल्लास था। इसकी चर्चा करते हुए लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक “विकास पुरूष” में लिखा है सभी को पहले से दिखने लगा था कि बिहार का खेवनहार आज शपथ लेने वाला है।
एक तरफ लोगों का हुजूम जो दसरी तरफ अन्य गणमान्य अतिथियों से भरा हुआ था ऐतिहासिक गांधी मैदाना। उन अतिथियों के बीच सूबे के नए मुखिया की शिक्षक पत्नी मंजू सिन्हा अपने इकलौते पुत्र निशांत कुमार और अन्य रिश्तेदारों के साथ बैठी हुई थी। वो नजारा मंजू सिन्हा की आंखों में रह रहकर खुशी के आंसू छलका रहा था। ये वही व्यक्ति हैं, जो मंजू सिन्हा के हमसफर हैं और आज बिहार की मिट्टी को संवारने के लिए ताजपोशी हो रही है।
हमने देखा है किसी के घर कोई एक अच्छे पदों पर चला जाता है तो उसके परिवार के लोग गुरूर से भर जाते हैं। मगर मंजू सिन्हा के लिए बहुत खुशी का क्षण था लेकिन उनकी गंभीरता उनका सम्मान बढ़ा रहा था। इस मौके पर जब उनसे पत्रकारों ने पूछा कि आपको अपने पति (नीतीश कुमार) के इस विजय पर क्या कहना है?
बड़े ही सहजभाव से मंजू सिन्हा ने कहा- ये सही और आम आदमी की जीत हुई है। इसको असत्य पर सत्य का विजय कहा जाएगा। जनता को जो इनसे उम्मीदें हैं मुझे पूरा विश्वास है कि उसको पूरा करने की कोशिश जरुर करेंगे। बिहार में सुशासन की सरकार कायम करेंगे। दूसरे दिन मंजू सिन्हा के दिए बयान को बिहार के अलावे देश के लगभग सभी अखबारों ने नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण को प्रमुखता से पहले पन्ने पर स्थान दिया।
उस समय मंजू सिन्हा पटना के यारपुर स्थित कमला नेहरू कन्या विद्यालय में शिक्षिका थीं। नीतीश कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी मंजू सिन्हा के रहन सहन और बोलचाल में किसी प्रकार का बदलाव नहीं आया। ना ही उन्होंने स्कूल जाना और पढ़ाना छोड़ा। वो रोज की तरह स्कूल जाने लगीं, उन्हें कभी नहीं लगा कि मुख्यमंत्री की पत्नी हैं, बल्कि उन्होंने आम आदमी की तरह ही खुद को बनाए रखा। उनकी इसी शालीनता ने नीतीश कुमार को और बल दिया।







