लेखक: अमित पांडेय
Panchayati Raj System: 73वें संविधान संशोधन अधिनियम को संसद में प्रस्तुत करते समय ग्रामीण विकास मंत्री जी. वेंकटस्वामी ने कहा था कि “यह केंद्र और राज्यों दोनों पर यह कर्तव्य डालता है कि वे ग्राम पंचायतों की स्थापना करें और उन्हें पोषित करें ताकि वे प्रभावी, स्वशासी संस्थाएं बन सकें।” यह कथन उस समय लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के एक ऐतिहासिक क्षण का संकेत था। परंतु तीन दशकों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी यह स्वशासी संस्था अपने मूल उद्देश्य की प्राप्ति से कोसों दूर दिखाई देती है। प्रश्न यह है कि जिस पंचायत राज प्रणाली को ग्रामीण भारत की आत्मा और लोकतंत्र की नींव माना गया था, वह आज भी क्यों केवल एक प्रशासनिक ढांचे की तरह सीमित है, और वास्तव में स्वशासी संस्था क्यों नहीं बन सकी?
स्वशासी संस्थान का तात्पर्य है ऐसी संस्था जो स्पष्ट रूप से परिभाषित कार्यों, पर्याप्त वित्तीय संसाधनों और सक्षम मानव संसाधनों के साथ स्वतंत्र रूप से कार्य करे। इसके लिए राज्यों द्वारा संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुसार वास्तविक सशक्तिकरण और क्रियान्वयन आवश्यक था। परंतु ज़मीनी साक्ष्यों और विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि पंचायतों को अब भी वही न्यूनतम भूमिका दी जा रही है जिसे ‘संविधान का दिखावा’ कहा जा सकता है। इस बात की पुष्टि भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन से होती है, जिसमें पंचायतों को मिली वास्तविक स्वायत्तता को मापने के लिए ‘विकेन्द्रीकरण सूचकांक’ तैयार किया गया।
यह अध्ययन भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली को सौंपा गया था, जिसका शीर्षक था: “राज्यों में पंचायतों को सौंपी गई शक्तियों की स्थिति – एक संकेतक आधारित रैंकिंग।” इस रिपोर्ट में छह प्रमुख आयामों के आधार पर पंचायतों की स्थिति का आकलन किया गया। ये आयाम हैं: कानूनी ढांचा (D1), कार्य (D2), वित्त (D3), कार्मिक (D4), क्षमता निर्माण (D5) और जवाबदेही (D6)। इन सभी को मिलाकर समग्र सूचकांक (D) प्राप्त किया गया। हर आयाम को उसकी पंचायतों को मजबूत करने में भूमिका के आधार पर वज़न (weightage) दिया गया, जिसमें ‘वित्त’ को सबसे अधिक 30% वज़न मिला, जबकि ‘ढांचा’ को मात्र 10%। बाकी प्रत्येक को 15% वज़न प्रदान किया गया।
इस रिपोर्ट में सभी राज्यों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया: सामान्य श्रेणी राज्य, पूर्वोत्तर/पहाड़ी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश। यह श्रेणीकरण भौगोलिक, प्रशासनिक और संरचनात्मक विविधताओं को ध्यान में रखकर किया गया ताकि तुलनात्मक मूल्यांकन अधिक यथार्थपरक हो सके।
अब मूल प्रश्न यह है कि जब संविधान संशोधन अधिनियम में स्वशासन की परिकल्पना स्पष्ट है, तब इसे वास्तविकता में परिवर्तित करने में चूक कहाँ रह गई? जवाब इसकी कार्यान्वयन प्रकिया में छिपा है। संविधान का 73वां संशोधन दो प्रकार के प्रावधान करता है: अनिवार्य और सक्षमकारी। ‘ढांचे’ से संबंधित अनिवार्य प्रावधानों जैसे त्रि-स्तरीय पंचायत प्रणाली, नियमित चुनाव और आरक्षण इत्यादि का पालन लगभग सभी राज्यों ने किया है, क्योंकि यह कानूनी बाध्यता थी। परंतु जो enabling provisions हैं – जैसे कार्यों का स्थानांतरण, वित्तीय अधिकार, कार्मिक की नियुक्ति, प्रशिक्षण व जवाबदेही तंत्र – ये राज्य सरकारों की इच्छा पर आधारित रहे और अधिकांश राज्यों ने इन्हें गंभीरता से नहीं लिया।
मूलतः देखा जाए तो पंचायतों को सौंपी गई शक्तियाँ या तो कागज़ी हैं या सीमित हैं। कई राज्यों में पंचायतों के पास कार्य तो हैं, लेकिन उन्हें लागू करने के लिए न तो धन है और न ही आवश्यक कार्मिक। अनेक ग्राम पंचायतें ऐसी हैं जहाँ सचिव एक से अधिक पंचायतों के लिए काम करता है, जिससे प्रशासनिक कार्यों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। वित्तीय अधिकारों की स्थिति यह है कि उन्हें मिलने वाले फंड की आपूर्ति भी अक्सर देरी से होती है, जिससे योजना क्रियान्वयन बाधित होता है।
क्षमता निर्माण एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है। पंचायत प्रतिनिधियों को न तो पर्याप्त प्रशिक्षण मिलता है, न ही उन्हें शासन के तकनीकी पहलुओं की समझ दी जाती है। परिणामस्वरूप वे या तो नौकरशाही पर निर्भर रहते हैं या बाहरी सलाहकारों पर। इससे स्थानीय प्रशासन की आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है।
पंचायतों की जवाबदेही की भी हालत चिंताजनक है। ग्राम सभाओं की नियमित बैठकें औपचारिकता बन गई हैं और पारदर्शिता के प्रयास महज दिखावे तक सीमित रह जाते हैं। जहाँ कभी पंचायतों को लोकतंत्र की प्रयोगशाला कहा गया था, वहाँ आज भी पारदर्शी लेखा-जोखा और जन सहभागिता का भारी अभाव है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ राज्य इस दिशा में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने पंचायतों को ठोस अधिकार और संसाधन प्रदान किए हैं, जिससे वहाँ स्थानीय शासन तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभावी हुआ है। परंतु यह अपवाद है, नियम नहीं। अधिकांश राज्यों में विकेंद्रीकरण केवल राजनीतिक भाषणों तक सीमित रह गया है।
समस्या का समाधान स्पष्ट है: केवल संविधान संशोधन या कानून बना देने से पंचायतों को सशक्त नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए वास्तविक राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक सुधार, वित्तीय आत्मनिर्भरता और ज़मीनी प्रशिक्षण प्रणाली को मज़बूत करना होगा। साथ ही, जवाबदेही और पारदर्शिता के स्पष्ट मापदंड भी विकसित किए जाने चाहिए ताकि पंचायतें न सिर्फ़ नाम की, बल्कि कार्य के स्तर पर भी स्वशासी बन सकें।
जब तक ग्राम स्तर की सरकारें सिर्फ़ कागज़ पर चलती रहेंगी, तब तक लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण अधूरा रहेगा। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंचायती राज को सत्ता का वास्तविक हस्तांतरण माना जाए, न कि प्रशासनिक बोझ बांटने का माध्यम। क्योंकि जब तक भारत का गाँव सशक्त नहीं होगा, तब तक भारत की लोकतंत्रिक आत्मा अधूरी ही रहेगी।