अमित सिंह: संपादक कड़वा सत्य
भारतीय लोकतंत्र की शक्ति उसकी चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता में निहित है। लेकिन हाल के वर्षों में इस पारदर्शिता को लेकर उठते सवाल चिंताजनक हैं। ताज़ा मामला कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा चुनाव आयोग (EC) से मतदाता सूची की पारदर्शिता को लेकर की गई मांग से जुड़ा है। उन्होंने आयोग से आग्रह किया है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 के मतदाता डेटा को डिजिटल, मशीन-रीडेबल प्रारूप में उपलब्ध कराने की स्पष्ट समय-सीमा घोषित की जाए।
राहुल गांधी की यह मांग तब सामने आई जब चुनाव आयोग ने 2009 से 2024 तक के महाराष्ट्र और हरियाणा के मतदाता सूची डेटा को साझा करने का निर्णय लिया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर लिखा, “EC द्वारा मतदाता सूची सौंपने का अच्छा पहला कदम उठाया गया है। क्या EC कृपया यह स्पष्ट कर सकता है कि यह डेटा डिजिटल, मशीन-रीडेबल प्रारूप में किस तारीख तक उपलब्ध कराया जाएगा?”
यह बयान केवल तकनीकी पारदर्शिता की मांग नहीं, बल्कि चुनावी प्रक्रिया में गहराते संदेह का संकेत भी है।
राहुल गांधी ने दावा किया है कि 2024 लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में मतदाता संख्या 9.29 करोड़ थी, जो नवंबर 2024 के विधानसभा चुनावों में बढ़कर 9.70 करोड़ हो गई। यानी कुछ ही महीनों में 41 लाख मतदाता जुड़ गए। यह असामान्य वृद्धि उन्होंने “फर्जी मतदाताओं” को जोड़ने की साज़िश करार दिया और इसे भाजपा-एनडीए की “मैच-फिक्सिंग” का हिस्सा बताया।
हालांकि, चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि मतदाता सूची हर वर्ष नियमित रूप से अद्यतन की जाती है और यह प्रक्रिया सभी मान्यता प्राप्त दलों के साथ पारदर्शी ढंग से साझा की जाती है। आयोग ने राहुल गांधी के दावों को “असंगत” बताया।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत में हर साल जनवरी 1 को आधार वर्ष मानते हुए मतदाता सूची का पुनरीक्षण किया जाता है। इसमें नए पात्र मतदाताओं को जोड़ा जाता है और मृत, डुप्लिकेट या स्थानांतरित मतदाताओं के नाम हटाए जाते हैं। यह संख्या में परिवर्तन का एक प्राकृतिक कारण हो सकता है, लेकिन 41 लाख का आंकड़ा निश्चित ही गहन जांच की मांग करता है।
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी की मांग का समर्थन करते हुए कहा कि चुनाव आयोग को उनकी शंकाओं का जवाब देना चाहिए। उनके अनुसार, जब देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी ऐसे गंभीर सवाल उठाती है, तो आयोग की जवाबदेही और पारदर्शिता और भी ज़रूरी हो जाती है। उन्होंने चुनाव आयोग के जवाब को “अपर्याप्त” बताया और कहा कि जनता के मन में यदि संदेह बना रहता है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
डिजिटल डेटा और मशीन-रीडेबल प्रारूप की मांग
राहुल गांधी की मांग केवल चुनावी आंकड़ों तक पहुंच की नहीं है, बल्कि उन आंकड़ों को एक ऐसे प्रारूप में उपलब्ध कराने की है जिससे स्वतंत्र संस्थाएं, शोधकर्ता, और नागरिक समाज खुद विश्लेषण कर सकें। मशीन-रीडेबल प्रारूप (जैसे CSV या JSON) में डेटा की उपलब्धता से न केवल पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि इसमें गड़बड़ी की आशंकाओं का स्वतंत्र जांच भी संभव होगा।
चुनावी प्रणाली की पारदर्शिता केवल तकनीकी प्रक्रिया नहीं, यह एक नैतिक ज़िम्मेदारी भी है। जब प्रमुख विपक्षी नेता, एक रणनीतिकार और बड़ी संख्या में नागरिक मतदाता सूची की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं, तो चुनाव आयोग का उत्तरदायित्व बनता है कि वह सार्वजनिक रूप से विस्तृत डेटा उपलब्ध कराए और हर शंका का तार्किक समाधान दे।
लोकतंत्र केवल मतदान की प्रक्रिया तक सीमित नहीं है, वह नागरिकों के भरोसे और विश्वास से चलती है। यदि यह विश्वास डगमगाता है, तो संपूर्ण लोकतांत्रिक ढांचा संकट में आ सकता है।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में चुनावी पारदर्शिता को सुनिश्चित करना आसान कार्य नहीं है, लेकिन यह आवश्यक अवश्य है। मतदाता सूची में अस्पष्ट बढ़ोतरी, डेटा की सीमित उपलब्धता और आयोग की अस्पष्ट प्रतिक्रियाएं चुनावी व्यवस्था में विश्वास को चोट पहुँचा सकती हैं।
राहुल गांधी और प्रशांत किशोर जैसे नेताओं द्वारा उठाए गए प्रश्न केवल राजनीतिक विरोध नहीं, बल्कि एक मजबूत लोकतंत्र के लिए आवश्यक विमर्श हैं। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह न केवल तकनीकी रूप से सक्षम हो, बल्कि जनता और विपक्ष के प्रति संवेदनशील और उत्तरदायी भी रहे।
आगामी राज्यों के चुनावों के मद्देनज़र यह विवाद और भी गहराएगा या हल होगा—यह आने वाले समय में स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन यह निश्चित है कि चुनावी पारदर्शिता की बहस अब राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन चुकी है।