दिल्ली की सर्द हवा में इन दिनों एक अजीब-सी खामोशी तैर रही है—एक ऐसी खामोशी जो अदालतों की ऊँची दीवारों से निकलकर नागरिक समाज की चेतना तक पहुँच रही है। 2 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट की एक सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश सुर्या कांत की टिप्पणियों ने इस खामोशी को और गहरा कर दिया। और अब, पूर्व न्यायाधीशों, वरिष्ठ वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के एक समूह ने एक खुला पत्र लिखकर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका को याद दिलाया है कि न्याय केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि मानवता की रक्षा भी है।
यह पत्र किसी औपचारिक असहमति का दस्तावेज़ नहीं—यह एक नैतिक हस्तक्षेप है।
एक ऐसा हस्तक्षेप जो बताता है कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा केवल अदालतों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक चेतना का भी दायित्व है।
सुनवाई के दौरान CJI ने पूछा था कि रोहिंग्या को शरणार्थी घोषित करने का भारत सरकार का आदेश कहाँ है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि कोई व्यक्ति “घुसपैठिया” है, “बाड़ पार करके आया है”, “टनल खोदकर आया है”, तो क्या भारत पर उसका बोझ उठाने की कोई बाध्यता है। और फिर उन्होंने सवाल उठाया—क्या ऐसे लोगों को भोजन, आश्रय और शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए?
यही वह क्षण था जिसने नागरिक समाज को झकझोर दिया।
पत्र लिखने वालों ने कहा कि यह टिप्पणी केवल एक कानूनी प्रश्न नहीं, बल्कि एक संवैधानिक चेतावनी है—क्योंकि यह उन लोगों को अमानवीय बनाती है जो पहले ही नरसंहार, हिंसा और जातीय सफ़ाए से भागकर आए हैं। संयुक्त राष्ट्र ने रोहिंग्या को “दुनिया का सबसे उत्पीड़ित अल्पसंख्यक” कहा है। वे नागरिकता से वंचित, राज्यहीन, दशकों से हिंसा झेलते लोग हैं—जो भारत सहित कई देशों में केवल सुरक्षा की तलाश में आए हैं।
पत्र में यह भी याद दिलाया गया कि भारत ने इतिहास में लाखों शरणार्थियों को अपनाया है—तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल, और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से आए लोग। भारत की परंपरा हमेशा शरण देने की रही है, न कि शरणार्थियों को अपराधी ठहराने की।
पत्र के शब्दों में एक गहरी चिंता है—कि CJI की टिप्पणी न्यायपालिका की नैतिक शक्ति को कमजोर करती है।
क्योंकि जब देश का सर्वोच्च न्यायाधीश किसी उत्पीड़ित समुदाय को “घुसपैठिया” की भाषा में देखता है, तो यह भाषा केवल अदालत में नहीं रहती—यह समाज में फैलती है, प्रशासन में उतरती है, और अंततः उन लोगों के जीवन को प्रभावित करती है जो पहले ही इतिहास की सबसे क्रूर त्रासदियों में से एक से भागकर आए हैं।
पत्र में यह भी कहा गया कि “एक व्यक्ति शरणार्थी इसलिए नहीं बनता क्योंकि राज्य उसे मान्यता देता है—बल्कि इसलिए कि वह उत्पीड़न से भागकर आया है।”
यह वाक्य भारत की संवैधानिक आत्मा का सार है—कि मानवाधिकार नागरिकता से बड़े होते हैं, और जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार हर व्यक्ति का है, चाहे वह नागरिक हो या न हो।
यह पूरा विवाद केवल रोहिंग्या का नहीं, बल्कि उस भारत का है जो खुद को सभ्यता, करुणा और न्याय की भूमि कहता है।
यह उस न्यायपालिका का भी सवाल है जो हमेशा से गरीबों, वंचितों और हाशिये पर खड़े लोगों की अंतिम उम्मीद रही है।
और यह उस राजनीतिक माहौल का भी प्रतिबिंब है जहाँ शरणार्थियों को अक्सर सुरक्षा के बजाय संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
पत्र लिखने वालों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश, वरिष्ठ वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं—वे लोग जिन्होंने दशकों तक न्यायपालिका की गरिमा को मजबूत किया है। उनका यह कहना कि CJI की टिप्पणी “पूर्वाग्रह की आशंका” पैदा करती है, एक गंभीर चेतावनी है।
भारत का इतिहास शरण देने का इतिहास है—न कि शरणार्थियों को अपराधी बनाने का।
और यही वह बिंदु है जहाँ यह पूरा विवाद भारत की आत्मा को छूता है—क्या हम उस परंपरा को जारी रखेंगे, या भय और राजनीति के दबाव में उसे बदल देंगे?
यह प्रश्न अदालत से बड़ा है।
यह प्रश्न राजनीति से भी बड़ा है।
यह प्रश्न उस भारत का है जो हम आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ना चाहते हैं।







