रूस-पाकिस्तान हथियार सौदे की ख़बर ने भारत की विदेश नीति पर नया विवाद खड़ा कर दिया है। यह सौदा रूस द्वारा पाकिस्तान को RD-93MA इंजन देने से जुड़ा है, जो चीन निर्मित JF-17 लड़ाकू विमानों के नवीनतम ब्लॉक-III संस्करण में लगाए जाएंगे। यह वही विमान हैं जिन्हें पाकिस्तान ने कई बार सीमा पर भारत के विरुद्ध तैनात किया है। कांग्रेस पार्टी ने इस पूरे घटनाक्रम को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की “व्यक्तिगत कूटनीति की असफलता” बताते हुए कड़ी आलोचना की है।
कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने कहा कि मोदी सरकार की विदेश नीति दिखावे और निजी संपर्कों पर ज़्यादा निर्भर है, जिसमें ठोस रणनीतिक तैयारी का अभाव दिखाई देता है। उन्होंने आरोप लगाया कि रूस, जो दशकों से भारत का सबसे भरोसेमंद रक्षा साझेदार रहा है, अब पाकिस्तान जैसे देश को लड़ाकू इंजन उपलब्ध करा रहा है, और भारत इस पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं डाल पाया। रमेश ने इसे प्रधानमंत्री की “हग डिप्लोमेसी” की नाकामी बताया — यह वही नीति है जिसमें व्यक्तिगत संबंधों के नाम पर राष्ट्रीय हितों को पीछे छोड़ दिया जाता है।
कांग्रेस के अनुसार मोदी सरकार रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से अंतरराष्ट्रीय संतुलन को संभालने में विफल रही है। भारत ने पश्चिमी देशों और रूस दोनों से संबंध बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन रूस-पाकिस्तान सौदे से स्पष्ट हुआ कि मास्को अब नई रणनीतिक दिशा में आगे बढ़ रहा है। विपक्ष का कहना है कि मोदी सरकार ने जिस ‘विशेष संबंध’ का दावा किया, वह अब केवल औपचारिक रह गया है। अमेठी के सांसद और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी इस पर तीखा वार करते हुए कहा कि यह सौदा “भारत की कूटनीतिक पराजय” है। उनके अनुसार भारत की विदेश नीति केवल मंचीय भाषणों और फोटो अवसरों तक सीमित रह गई है, जबकि वास्तविक निर्णय-निर्माण में भारत की आवाज़ कमजोर हुई है।
हालाँकि सरकार की ओर से अब तक कोई विस्तृत आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार भारत ने रूस के समक्ष इस सौदे को लेकर चिंता प्रकट की है। सरकारी हलकों में यह तर्क दिया जा रहा है कि रूस एक स्वतंत्र शक्ति है और अपने आर्थिक हितों के आधार पर रक्षा सौदे करता है। साथ ही यह भी कहा गया कि भारत-रूस संबंध गहरे और दीर्घकालिक हैं, और किसी एक सौदे से इन पर प्रश्न नहीं उठाए जा सकते। रूस अभी भी भारत को S-400 मिसाइल प्रणाली और Su-57 लड़ाकू विमान जैसी महत्वपूर्ण रक्षा तकनीकें उपलब्ध करा रहा है।
फिर भी यह तर्क पूरी तरह संतोषजनक नहीं लगता। रूस-पाकिस्तान सौदा सिर्फ एक आर्थिक निर्णय नहीं है; यह भारत की सुरक्षा संतुलन और सामरिक भरोसे पर असर डाल सकता है। पाकिस्तान यदि रूस निर्मित आधुनिक इंजनों और चीनी PL-15 मिसाइलों से लैस विमानों का इस्तेमाल करेगा, तो यह सीमा पर शक्ति संतुलन को प्रभावित करेगा। भारतीय वायुसेना ने पहले ही संकेत दिया है कि JF-17 ब्लॉक-III विमानों की क्षमता में वृद्धि भारत की सामरिक बढ़त को चुनौती दे सकती है। इस संदर्भ में, रूस का यह कदम भारत के पारंपरिक हितों के खिलाफ प्रतीत होता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार ने अपनी विदेश नीति को अत्यधिक व्यक्तिवादी बना दिया है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएँ, अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में उनकी प्रमुख उपस्थिति और विदेशी नेताओं से नज़दीकी संबंधों के प्रदर्शन ने भले ही राजनीतिक लोकप्रियता दी हो, लेकिन इन प्रयासों से स्थायी रणनीतिक परिणाम नहीं निकले। विदेश नीति विशेषज्ञ सी. राजमोहन के अनुसार, “कूटनीति में व्यक्तिगत छवि केवल प्रारंभिक दरवाज़ा खोल सकती है, लेकिन अंततः परिणाम संस्थागत गहराई से आते हैं।” यह बात इस प्रकरण में सटीक बैठती है।
कुछ रक्षा विश्लेषकों का कहना है कि भारत को अब अपनी सामरिक निर्भरता को सीमित करते हुए नए रक्षा सहयोगों पर बल देना चाहिए। रूस-चीन-पाकिस्तान त्रिकोण की बढ़ती निकटता को देखते हुए भारत को अमेरिका, फ्रांस, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ अपनी साझेदारी और मजबूत करनी चाहिए। वहीं, कांग्रेस का कहना है कि मोदी सरकार केवल प्रतीकात्मक वैश्विक गठबंधनों में व्यस्त है, जबकि पड़ोसी देशों की वास्तविक गतिशीलता को नज़रअंदाज़ कर रही है।
इस पूरे विवाद का मूल संदेश यह है कि व्यक्तिगत कूटनीति और वैश्विक छवि-निर्माण के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। प्रधानमंत्री मोदी की शैली ने भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान को ऊँचा किया है, लेकिन यदि वही नीति वास्तविक परिणाम न दे सके, तो उसे रणनीतिक असफलता कहा जाएगा। विदेश नीति में व्यक्तिगत संबंध महत्वपूर्ण हैं, किंतु वे संस्थागत विश्वसनीयता और दीर्घकालिक हितों का विकल्प नहीं हो सकते।
रूस-पाकिस्तान सौदा भारत के लिए एक चेतावनी है — कि वैश्विक राजनीति केवल मित्रता या फोटो अवसरों से नहीं चलती, बल्कि रणनीतिक विश्वास और पारदर्शी हितों से चलती है। यह समय है जब भारत को अपनी विदेश नीति का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी मित्र देश उसके सुरक्षा हितों से समझौता न करे। विपक्ष द्वारा उठाए गए प्रश्नों को राजनीतिक बयानबाज़ी मानकर नकारने के बजाय सरकार को ठोस स्पष्टीकरण देना चाहिए, क्योंकि विदेश नीति अंततः जनता के विश्वास और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों से जुड़ी होती है।